बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध थे। इन्हें एशिया का "ज्योति पुँज" भी कहा जाता है। बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। इसकी उत्पत्ति ईसाई और इस्लाम धर्म से पहले हुई।
यह संसार का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। इसे मानवीय धर्म भी कहा जा सकता है। क्योंकि इसमें ईश्वर को नहीं बल्कि मानव को महत्व दिया गया है।
महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनीतिक, स्वतंत्रता एवं समानता की शिक्षा दी है।
बौद्ध धर्म मूलतः अनीश्वरवादी अनात्मवादी है अर्थात इसमें ईश्वर और आत्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है। किन्तु इसमें पुनर्जन्म को मान्यता दी गयी है।
बौद्ध धर्म के उदय का मुख्य कारण उत्तर पूर्व में एक नवीन प्रकार की आर्थिक व्यवस्था का प्रादुर्भाव होना था।
इसके विस्तार के कारणों में बौद्ध धर्म की सादगी, दलितों के लिए विशेष अपील, मिशनरी भावना, स्थानीय भाषा का प्रयोग, राजकीय संरक्षण, महात्मा बुद्ध का आकर्षक एवं प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व, चारों वर्णों का समर्थन आदि मुख्य कारण थे।
इस धर्म को मानने वाले चीन, जापान, कोरिया, भारत, नेपाल, भूटान और श्रीलंका आदि देशों में रहते हैं।
बौद्ध धर्म के सिद्धान्त
बुद्ध ने सांसारिक दुःखों के सम्बन्ध में चार "आर्य सत्यों" का उपदेश दिया। ये आर्य सत्य बौद्ध धर्म का मूल आधार हैं। जो इस प्रकार हैं--
1-दुःख-- संसार में सर्वत्र दुःख है। जीवन दुःखों व कष्टों से भरा है। संसार को दुःखमय देखकर ही बुद्ध ने कहा था-सब्बम् दुःखम्
2-दुःख समुदाय-- दुःख समुदाय अर्थात दुःख उत्पन्न होने के कारण हैं। प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। अतः दुःख का भी कारण है। सभी कारणों का मूल अविद्या तथा तृष्णा है। दुःखों के कारणों को "प्रतीत्य समुत्पाद" कहा गया है। इसे "हेतु परम्परा" भी कहा जाता है।
प्रतीत्य समुत्पाद क्या है?
प्रतीत्य समुत्पाद बौद्ध दर्शन का मूल तत्व है। अन्य सिद्धान्त इसी में समाहित हैं। बौद्ध दर्शन का क्षण-भंगवाद भी प्रतीत्य समुत्पाद से उत्पन्न सिद्धान्त है।
प्रतीत्य समुत्पाद का अर्थ है कि संसार की सभी वस्तुयें कार्य और कारण पर निर्भर करती हैं। संसार में व्याप्त हर प्रकार के दुःख का सामूहिक नाम "जरामरण" है।
जरामरण के चक्र (जीवन चक्र) में बारह क्रम हैं-- जरामरण, जाति (शरीर धारण करना), भव (शरीर धारण करने की इच्छा), उपादान (सांसारिक विषयों में लिपटे रहने की इच्छा), तृष्णा, वेदना, स्पर्श, षडायतन (पाँच इंद्रियां तथा मन), नामरूप, विज्ञान (चैतन्य), संस्कार व अविद्या
प्रतीत्य समुत्पाद में इन कारणों के निदान की अभिव्यंजना की गई है।
3-दुःख निरोध-- दुःख का अन्त सम्भव है। अविद्या तथा तृष्णा का नाश करके दुःख का अन्त किया जा सकता है।
4-दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा-- अष्टांगिक मार्ग ही दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा हैं।
अष्टांगिक मार्ग
सांसारिक दुःखों से मुक्ति हेतु बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग पर चलने की बात कही है। अष्टांगिक मार्ग के अनुशीलन से मनुष्य की भव तृष्णा नष्ट होने लगती है और वह निर्वाण की ओर अग्रसर हो जाता है।
अष्टांगिक मार्ग के साधन
1-सम्यक दृष्टि-- वस्तुओं के वास्तविक रूप का ध्यान करना सम्यक दृष्टि है।
2-सम्यक संकल्प-- आसक्ति, द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखना।
3-सम्यक वाक-- अप्रिय वचनों का परित्याग
4-सम्यक कर्मान्त-- दान, दया, सत्य, अहिंसा आदि सत्कर्मों का अनुसरण करना।
5-सम्यक आजीव-- सदाचार के नियमों के अनुकूल जीवन व्यतीत करना।
6-सम्यक व्यायाम-- विवेकपूर्ण प्रयत्न करना।
7-सम्यक स्मृति-- सभी प्रकार की मिथ्या धारणाओं का परित्याग करना।
8-सम्यक समाधि-- चित्त की एकाग्रता
अष्टांगिक मार्ग के साधनों को तीन स्कन्धों में बांटा गया है।
१-प्रज्ञा-- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक
२-शील-- सम्यक कर्मान्त, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम
३-समाधि-- सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि
महात्मा बुद्ध ने "मध्यम मार्ग अथवा मध्यम प्रतिपदा" का उपदेश देते हुए कहा कि मनुष्य को सभी प्रकार के आकर्षण एवं कायाक्लेश से बचना चाहिए अर्थात न तो अत्यधिक इच्छाएं करनी चाहिए और न ही अत्यधिक तप (दमन) करना चाहिए। बल्कि इनके बीच का मार्ग अपना कर दुःख निरोध का प्रयास करना चाहिए।
बौद्ध धर्म में निर्वाण प्राप्ति के लिए सदाचार तथा नैतिक जीवन पर अधिक बल दिया गया। दस शीलों का पालन सदाचारी तथा नैतिक जीवन का आधार है। इन शीलों को शिक्षापाद भी कहा जाता है।
1-अहिंसा (किसी भी प्रकार की हिंसा न करना),
2-सत्य (सदा सत्य बोलना),
3-अस्तेय (चोरी न करना),
4-समय से भोजन ग्रहण करना,
5-मद्य का सेवन न करना,
6-ब्रह्मचर्य का पालन करना,
7-अपरिग्रह (धन संचय न करना),
8-आराम दायक शैय्या का त्याग करना,
9-व्यभिचार न करना,
10-आभूषणों का त्याग करना।
गृहस्थ बौद्ध अनुयायियों को केवल प्रथम पाँच शीलों का अनुशीलन आवश्यक था। गृहस्थों के लिए बुद्ध ने जिस धर्म का उपदेश दिया उसे उपासक धर्म कहा गया।
बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है। जिसका अर्थ है-दीपक का बुझ जाना अर्थात जीवन मरण चक्र से मुक्त हो जाना।
महात्मा बुद्ध के अनुसार निर्वाण इसी जीवन में प्राप्त हो सकता है। किन्तु महापरिनिर्वाण मृत्यु के बाद ही सम्भव है।
बौद्ध धर्म की विशेषताएं
1-बौद्ध धर्म क्षणिकवादी है।
2-बौद्ध दर्शन अन्तः शुद्धिवादी है।
3-यह कर्मवादी है। यहाँ कर्म से तात्पर्य शारीरिक, मानसिक तथा वाचिक क्रियाओं से है।
4-यह धर्म अनीश्वरवादी है। किन्तु पुनर्जन्म में विश्वास करता है।
5-इसमें मानव व्यक्तित्व को पंच स्कन्धों से निर्मित बताया गया है।
6-यह दर्शन अनात्मवादी है।
7-इसमें कर्मकाण्ड एवं पशुबलि का विरोध किया गया है।
बौद्ध धर्म में संघ
बौद्ध धर्म में संघ का महत्वपूर्ण स्थान है। यह त्रिरत्न का अनिवार्य अंग है। बौद्ध धर्म के त्रिरत्न बुद्ध, धम्म एवं संघ हैं।
सारनाथ में अपना प्रथम उपदेश देने के बाद बुद्ध ने पाँच ब्राह्मण सन्यासी शिष्यों के साथ संघ की स्थापना की।
संघ में प्रवेश पाने के लिए गृहस्थ जीवन का त्याग और कम से कम 15 वर्ष की आयु का होना आवश्यक था।
बौद्ध संघ का संघठन गणतंत्र प्रणाली पर आधारित था। संघ में अल्पायु, चोर, हत्यारों, ऋणी व्यक्तियों, राजा के सेवक, दास और रोगी व्यक्तियों का प्रवेश वर्जित था।
गौतम बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनन्द के अनुरोध पर संघ में महिलाओं को प्रवेश दिया।
संघ की सभा में प्रस्ताव को नत्ति कहा जाता था, जबकि प्रस्ताव पाठ को अनुसावन कहते थे। संघ में प्रवेश पाने वाले को "उपसम्पदा" कहा जाता था।
गृहस्थ जीवन का त्याग प्रवज्या कहलाता था। प्रवज्या ग्रहण करने वाले को श्रामणेर कहते थे। बौद्ध धर्म के अनुयायी दो वर्गों में बंटे थे।
1-भिक्षु, 2-उपासक
गृहस्थ जीवन में रहकर बौद्ध धर्म मानने वाले लोग उपासक कहलाते थे।
बौद्ध धर्म के पतन के कारण
1-बौद्ध संघ में विभेद तथा उसके अनुयायियों का विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित होना।
2-कर्मकाण्डों एवं मूर्तिपूजा को अपनाना
3-बौद्ध विहारों में विलासिता एवं व्यभिचार का प्रारम्भ होना।
4-ब्राह्मण धर्म में सुधार होना।
5-राजकीय संरक्षण का न मिलना।
6-तुर्कों (बख्तियार खिलजी) द्वारा बौद्ध मठों को नष्ट किया जाना।
7-स्थानीय भाषा के स्थान पर संस्कृत भाषा को माध्यम बनाना।
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