प्राचीन भारत पर विदेशी आक्रमण

भारत को विदेशी आक्रमण का सामना प्राचीन काल से ही करना पड़ा है। प्राचीन विदेशी आक्रमणकारियों में ईरान, पारसी तथा यूनानी थे।

ये लोग भारत की समृद्धि से परिचित थे। इनका उद्देश्य भारत से भारी मात्रा में धन सम्पदा लूटना था। भारतीय राजाओं की आपसी फूट ने इन विदेशी आक्रमणकारियों को अवसर दिया।

प्राचीन भारत पर  विदेशी आक्रमण

प्राचीन भारत पर सर्वप्रथम आक्रमण करने वाले ईरानी थे। ईरानियों के बाद पारसीक आये। इसके बाद यूनानियों ने भारत को जीतने का प्रयास किया। यूनानी आक्रांताओं में 326 ईसा पूर्व सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया।

प्राचीन भारत पर ईरानी आक्रमण


भारत पर प्रथम विदेशी आक्रमण ईरान के हखामनी वंश के राजाओं ने किया। इस वंश के संस्थापक "कुरुष" (558 से 530 ईसा पूर्व) की सेना भारत के समीप तक पहुँची थी।
कुरुष ने जेड्रोसिया के रेगिस्तानी रास्ते से होते हुए भारत पर आक्रमण करने का प्रयत्न किया। परन्तु उसे असफलता का सामना करना पड़ा।

कुरुष के उत्तराधिकारियों में प्रमुख था--दारयवहु (522 से 480 ईसा पूर्व) जिसने भारत पर प्रथम सफल आक्रमण किया। दारयवहु की इस सफलता का उल्लेख उसके बेहिस्तुन, पर्सिपोलिस एवं नक्शे रुस्तम अभिलेखों में मिलता है।

दारयवहु के पुत्र खषयार्ष या जक्सींज ने जीते गये भारतीय प्रदेशों पर अधिकार बनाये रखा। अखेला के युद्ध मे सिकन्दर द्वारा पराजित किये जाने के बाद भारत पर ईरानी अधिकार समाप्त हो गया।

प्राचीन भारत पर पारसीक आक्रमण


पारसीक द्वितीय विदेशी आक्रमणकारी थे। पारसीक शासक डेरियस प्रथम या दारा प्रथम ने 516 ईसा पूर्व में आक्रमण कर भारत के पश्चिमोत्तर भाग को अपने 20वें प्रान्त में शामिल कर लिया।

इतिहास के पिता "हेरोडोटस" ने लिखा है कि इस प्रान्त से दारा को 360 टैलेंट स्वर्ण धूलि की आय थी।

ईरानी तथा पारसीक आक्रमण के भारत पर प्रभाव

भारत का उत्तरी-पश्चिमी प्रान्त लगभग 200 वर्षों तक ईरानी व पारसीक अधिकार क्षेत्र में रहा, यहीं पर पहली बार भारतवासी किसी विदेशी संस्कृति के प्रभाव में आये। यहीं पर पहली बार भारतीय सेनाओं का यूरोपीय सेनाओं से सामना हुआ तथा भारतीय दार्शनिकों को यूरोपीय दार्शनिकों से सम्पर्क स्थापित करने का मौका मिला।

पारसीक सम्पर्क के फलस्वरूप भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में "खरोष्ठी" नामक एक नयी लिपि का जन्म हुआ। जो ईरानी आरमेइक लिपि से उत्पन्न हुई थी। इन प्रदेशों की भाषाएँ भी पारसीक भाषा से प्रभावित हुईं।

भारत और ईरान के सम्बन्ध के कारण यहां ईरानी मुद्रा प्रचलित हुई। फारसी स्वर्ण मुद्रा "डेरिक" कहलाती थी और रजत मुद्रा "सिगलोई"।

ईरानी व पारसीक आक्रमणों के परिणामस्वरूप भारतीय राजाओं में साम्राज्यवादी विचारधारा की भावना प्रबल हुई। पारसीक क्षत्रप प्रणाली का प्रयोग शक तथा कुषाण शासकों ने किया। जबकि पारसीक राजाओं ने महाराजाधिराज, परमदैवत, परमभागवत जैसी उपाधियाँ धारण की।

मौर्य काल में दण्ड के रूप में सिर घुटवाने की प्रथा, मंत्रियों के कक्ष में हर समय अग्नि प्रज्वलित रहने की व्यवस्था पारसीकों से ही ग्रहण की गई थी।

यूनानी आक्रमण

ईरानी और पारसीक आक्रमण के बाद भारत को यूनानी आक्रमणकारी सिकन्दर का सामना करना पड़ा। 

प्राचीन भारत पर सिकन्दर का आक्रमण


सिकन्दर मेसोडोन या मकदूनिया के क्षत्रप फिलिप द्वितीय का पुत्र था। सिकन्दर के आक्रमण के समय पश्चिमोत्तर भारत अनेक छोटे छोटे राज्यों में विभक्त था, जिनमें कुछ गणतंत्रात्मक तथा कुछ राजतंत्रात्मक थे।

अतः इनको अलग अलग जीतना सिकन्दर के लिए सरल था। उसने भारत पर 326 ईसा पूर्व आक्रमण किया। तक्षशिला के शासक आम्भी ने को सहयोग प्रदान किया। 

झेलम (वितस्ता) नदी का युद्ध

भारत की धरती पर सिकन्दर का प्रबल प्रतिरोध पौरव राजा "पोरस" ने किया। युद्ध में अद्भुत वीरता दिखाने के बाद भी पोरस की पराजय हुई, किन्तु सिकन्दर ने पोरस की बहादुरी से प्रभावित होकर उसके राज्य को वापस कर उससे मित्रता कर ली।

पोरस के बाद सिकन्दर ने ग्लौगनिकाय एवं कठ जातियों को हराया। विजय अभियान के अन्तर्गत जब सिकन्दर व्यास नदी के किनारे पहुँचा तो उसके सैनिकों ने आगे बढ़ने से मना कर दिया। इस प्रकार 19 महीने भारत मे व्यतीत करने के बाद सिकन्दर वापस लौट गया।

सिकन्दर ने अपने सम्पूर्ण विजित क्षेत्र को चार प्रशासनिक इकाइयों में बाँट दिया।

१-प्रथम प्रान्त सिन्धु के उत्तरी तथा पश्चिमी भागों को बनाया गया तथा फिलिप को यहाँ का क्षत्रप नियुक्त किया गया।
२-दूसरा प्रान्त सिन्धु तथा झेलम के बीच के भू-भाग को बनाया यहाँ का शासन आम्भी के अधीन कर दिया।
3-तीसरा प्रान्त झेलम नदी के पूर्वी भाग से व्यास नदी तक के क्षेत्र को बनाया, यहाँ का शासन पोरस को सौंप दिया।
4-चौथा प्रान्त सिन्धु नदी के निचले भाग को बनाया, यहाँ पिथोन को क्षत्रप नियुक्त किया।

सिकन्दर को वापस लौटते समय अनेक गणराज्यों के विरोध का सामना करना पड़ा। जिसमें सबसे प्रबल विरोध मालवा तथा क्षुद्रक गणों का था। इस युद्ध में सिकन्दर घायल हो गया फिर भी मालव नरेश पराजित हो गये। सिकन्दर ने यहाँ भीषण नर संघार करवाया। वापस लौटते समय रास्ते में 323 ईसा पूर्व में बेबीलोन में सिकन्दर की मृत्यु हो गयी।

यूनानी आक्रमण का भारत पर प्रभाव

यूनानी प्रभाव के अंतर्गत भारतीयों ने यूनानियों से मुद्रा निर्माण कला ग्रहण की। भारत में गन्धार शैली का विकास यूनानी प्रभाव का ही परिणाम है। सिकन्दर के आक्रमण के फलस्वरूप ही भारत का पश्चिमी देशों से जलीय एवं थलीय सम्बन्ध स्थापित हो सका।

सिकन्दर के आक्रमण का प्रभाव भारतीय राजनीति पर भी पड़ा। भारत के पश्चिमोत्तर के छोटे छोटे राज्य, जो आपस में संघर्ष रत थे, अब एक सूत्र में बंधने के लक्षण दिखे। जिससे एकीकरण की प्रक्रिया को बल मिला। भारत में साम्राज्यवादी प्रक्रिया भी तेज हो गई जिसका तत्कालीन उदाहरण मौर्य साम्राज्य था।

सांस्कृतिक प्रभाव के अन्तर्गत पूर्व और पश्चिम के मध्य सदियों से खड़ी दीवार ढह गई एवं उन्हें एक दूसरे के नजदीक आने का अवसर मिला। यूनानी मुद्रा कला का प्रभाव भारतीय मुद्रा निर्माण कला पर पड़ा। भारत में यूनानी मुद्राओं के अनुकरण पर उलूक शैली में सिक्के ढाले गये।

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