ब्रह्म समाज की स्थापना

ब्रह्म समाज की स्थापना 20 अगस्त 1828 ई. में कलकत्ता में हुई थी। राजा राम मोहन राय इसके "संस्थापक या प्रवर्तक" थे। प्रारम्भ में इसे "ब्रह्म सभा" कहा गया, बाद में यह ब्रह्म समाज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसे "अद्वैतवादी हिन्दुओं की संस्था" भी कहा जाता है। इस संस्था का उद्देश्य हिन्दू धर्म को "रूढ़ियों और अंधविश्वासों" से मुक्त करके नवीन रूप प्रदान करना था।

Brahm samaj ki sthapana

 इसमें मूर्तिपूजा, अवतारवाद, बहुदेववाद, पुरोहितवाद आदि का खण्डन किया गया तथा एकेश्वरवाद पर बल दिया। आत्मा की अमरता में विश्वास व्यक्त किया।

 राजा राम मोहन राय के उपदेशों का सार "सर्व धर्म समभाव" था। 27 सितम्बर 1833 ई. में ब्रिस्टल (इंग्लैंड) राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद इस समाज के विस्तार में शिथिलता आ गई।

ब्रह्म समाज का विस्तार


 राजा राममोहन राय के बाद महर्षि द्वारिका नाथ एवं रामचन्द्र विद्यावगीश ने ब्रह्म समाज का नेतृत्व किया। इसके बाद 21 दिसम्बर 1843 ई. में इसकी बागडोर देवेन्द्र नाथ टैगोर के हाथों में आ गयी। उन्होंने इस संस्था में नया जीवन फूंकने और इसे एक ईश्वरवादी आंदोलन के रूप में आगे बढ़ाने का कार्य किया।
 देवेन्द्र नाथ टैगोर ने ब्रह्म धर्म अवलम्बियों को मूर्ति पूजा, कर्मकाण्ड, तीर्थयात्रा एवं प्रायश्चित आदि करने से रोका। उनके विचार में लकड़ी और पत्थर की मूर्तियों को ईश्वर कैसे माना जा सकता है। उन्होंने कहा कि ईश्वर को जैसे चाहो वैसे पूजो।उन्होंने पूजा के लिए ब्रह्म स्वरूप की उपासना अर्थात "ब्रह्मोपासना" पर जोर दिया।
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 देवेन्द्र नाथ टैगोर ने ईसाई धर्म प्रचारक अलेक्जेण्डर डफ के भारतीय संस्कृति विरोधी विचारों का मुंहतोड़ जवाब दिया।

 ब्रह्म समाज से जुड़ने से पूर्व देवेन्द्र नाथ टैगोर ने कलकत्ता के "जोरासाकी" में "तत्वरंजिनी सभा" की स्थापना की थी। जो 1839 में रूपान्तरित होकर "तत्वबोधिनी सभा" के रूप सामने आयी। उन्होंने तत्वबोधिनी नामक पत्रिका तथा "ब्रह्म धर्म" नामक धार्मिक पुस्तिका का प्रकाशन भी किया।

 1857 ई. में टैगोर ने "केशव चन्द्र सेन" को ब्रह्म समाज की सदस्यता प्रदान की और आचार्य नियुक्त कर दिया।

 केशवचन्द्र सेन के समय में ब्रह्म समाज का तीव्र गति से विस्तार हुआ। उनकी वाकपटुता और उदारवादी विचारों ने इस आंदोलन को लोकप्रिय बना दिया। शीघ्र ही इसकी शाखाएं बंगाल से बाहर पंजाब, उत्तर प्रदेश, बम्बई व मद्रास में खोल दी गयीं।

 केशवचन्द्र सेन जॉन दी वैस्टिस्ट, ईसा मसीह और सेंट पॉल के जीवन से अत्यधिक प्रभावित थे। सेन हिन्दू धर्म को संकीर्ण मानते थे और संस्कृत के मूलपाठों के प्रयोग को ठीक नहीं समझते थे। उन्होंने यज्ञोपवीत पहनने के विरुद्ध प्रचार किया। इन्होंने ब्रह्म सभा में ईसाई, मुस्लिम, पारसी व चीनी धर्म पुस्तकों का पाठ करवाया। उन्होंने हिन्दू सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया।

 केशवचन्द्र सेन ब्रह्म समाज को "हिन्दू धर्म सुधार" आन्दोलन न मानकर केवल "धर्म सुधार" आन्दोलन मानते थे। जिसके कारण 1865 ई. में उनका देवेन्द्र नाथ टैगोर से टकराव हो गया। उन्होंने केशवचन्द्र सेन को आचार्य की पद से पदच्युत कर दिया। इस प्रकार ब्रह्म समाज में 1865 ई. में पहली फूट पड़ी। अलग होकर केशवचन्द्र सेन ने एक नवीन ब्रह्म समाज का गठन किया। जिसे "आदि ब्रह्म समाज" के नाम से जाना जाता है।

आदि ब्रह्म समाज


 1865 ई. में ब्रह्म समाज से पृथक होने के बाद केशवचन्द्र सेन ने 1866 ई. में कलकत्ता में "आदि ब्रह्म समाज" की स्थापना की। इन्होंने स्त्रियों की मुक्ति, विद्या का प्रसार, सस्ते दाम में साहित्य बांटना, मद्य निषेध और दान को इस नवीन "आदि ब्रह्म समाज" का मुख्य उद्देश्य बनाया।
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 1872 ई. में इनके ही प्रयासों से "ब्रह्म विवाह एक्ट" पारित हुआ। जिसके द्वारा "बाल विवाह तथा बहुपत्नी विवाह" को अवैध घोषित कर दिया गया। परन्तु 1878 ई. में उन्होंने ही इस कानून का उल्लंघन करते हुए अपनी अल्प आयु पुत्री (13 वर्षीय) का विवाह "कूच बिहार" के राजा से कर दिया। जिसके कारण केशवचन्द्र सेन के अधिकतर अनुयायी बहुत दुःखी हुये। फलतः "आदि ब्रह्म समाज" का विघटन हो गया। इन अनुयायियों ने आनन्द मोहन बोस तथा शिवनाथ शास्त्री के दिशा निर्देशन में "साधारण ब्रह्म समाज" की स्थापना की।

 ब्रह्म समाज ने भारतीय पुनर्जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ब्रह्म समाज आंदोलन 19वीं शताब्दी के अन्य सभी धार्मिक या सामाजिक सुधार आन्दोलनों का आरम्भिक बिन्दु था। ईसाई धर्म से प्रभावित लोग जो हिन्दू धर्म से अपना बन्धन लगभग तोड़ चुके थे। उन लोगों ने ब्रह्म समाज की शरण ली। जिससे हिन्दू धर्म परिवर्तन की दर मन्द पड़ गयी।

 ब्रह्म समाज ने हिन्दू समाज को बहुत प्रभावित किया। इसने हिन्दू समाज में व्याप्त अंधविश्वासों तथा हठधर्म को समाप्त करने का प्रयास किया। विदेश यात्रा पर समकालीन प्रतिबन्धों को चुनौती दी। स्त्रियों की प्रतिष्ठा को बढ़ाने का प्रयत्न किया। बहु विवाह, सती प्रथा, बाल विवाह तथा पर्दा प्रथा को बन्द करवाया। विधवा विवाह तथा स्त्री शिक्षा के लिए प्रयत्न किया। जातिवाद एवं अस्पृश्यता को भी हटाने का प्रयत्न किया किन्तु इसमें अधिक सफलता नहीं मिली।

Q-19वीं शताब्दी में भारत में धार्मिक और सामाजिक सुधार आन्दोलनों के आरम्भ होने का प्रमुख कारण क्या था?
@-पाश्चात्य शिक्षा एवं जागृति
Q-आधुनिक भारत में प्रथम मिशनरी आन्दोलन की उपमा किस आन्दोलन को प्रदान की गयी?
@-ब्रह्म समाज को
Q-संगत सभा की स्थापना किसने की थी?
@-केशवचन्द्र सेन ने
Q-शुभ समाचार पत्रिका का सम्पादन किसने किया था?
@-केशवचन्द्र सेन ने
Q-साधारण ब्रह्म समाज की स्थापना किसने की थी?
@-1878 ई. में आनन्द मोहन बोस ने
Q-इंडियन रिफार्म एसोसिएशन की स्थापना किसने की थी?
@-केशवचन्द्र सेन

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