उत्तर वैदिक कालीन अर्थ व्यवस्था|Economy of post Vedic period

वैदिक कालीन अर्थ व्यवस्था में कृषि का महत्व बढ़ गया तथा पशुपालन कम हो गया। इसका प्रमुख कारण लोहे का प्रयोग था।

लोहे के प्राचीनतम साक्ष्य 1000 ईसा पूर्व के आसपास ऐटा जिले में स्थित अतरंजीखेड़ा से प्राप्त होते हैं। इसके प्रयोग से कृषि क्षेत्र में क्रान्ति आ गयी।

1-कृषि

इस काल में आर्यों का प्रमुख व्यवसाय कृषि था। सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में कृषि की समस्त प्रक्रियाओं कर्षण (जुताई), बपन (बुआई), लुनन (कटाई) एवं मर्षण (मड़ाई) का उल्लेख मिलता है।

उत्तर वैदिक काल की अर्थव्यवस्था

अतरंजीखेड़ा से जौ, चावल एवं गेहूँ के साक्ष्य मिले हैं। जबकि हस्तिनापुर से चावल तथा जंगली किस्म के गन्ने के अवशेष मिले हैं। यजुर्वेद में व्रीहि (धान), यव (जौ), माष (उड़द), मृद्ग (मूँग), गोंधूम (गेहूँ) आदि अनाजों का वर्णन मिलता है।

हल के लिए "सीर" तथा गोबर की खाद के लिए "करीष" शब्द प्रयोग किये जाते थे। इस काल में सिंचाई के साधनों में तालाबों एवं कुओं के साथ पहली बार अथर्ववेद में नहरों का उल्लेख हुआ है। फसल मुख्यतः दो प्रकार की होती थी--

१-कृष्टिपच्य-- खेती करके पैदा की जाने वाली फसल।
२-अकृष्टपच्य-- बिना खेती किये पैदा होने वाली फसल।

2-पशुपालन

उत्तर वैदिक काल में गाय, बैल, बकरी, गधे, सुअर आदि पशु प्रमुख रूप से पाले जाते थे। हाथी पालना भी शुरू हो गया था। बड़े बैल को इस काल में महोक्ष कहा जाता था। यज्ञों के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर गोवध करने वाले को मृत्यु दण्ड दिया जाता था।

3-उद्योग

वाजसनेयी संहिता और तैत्तिरीय ब्राह्मण में इस समय के व्यवसायों की सूची दी गयी है। इस काल के प्रमुख व्यवसायी धातुकर्मी, मछुआरे, धोबी, कुलाल, भिषक (चिकित्सक), रथकार आदि थे। विविध प्रकार के शिल्पों का उदय भी उत्तर वैदिक अर्थ व्यवस्था की विशिष्टता थी। उद्योगों में स्त्रियां भी सहयोग करती थीं।

4-वस्त्र निर्माण

बुनाई का कार्य केवल स्त्रियां करती थीं। इस काल में वस्त्रों की सिलाई हेतु सुई का उल्लेख मिलता है।

5-धातु का काम

यजुर्वेद में हिरण्य (सोना), त्रपु (टिन), सीसा, अयस और लोहे का विवरण मिलता है। चाँदी का उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। सोने और चांदी से अनेक प्रकार के आभूषण बनाये जाते थे। लोहे को श्याम अयस तथा कृष्ण अयस कहा जाता था। भारत में लोहे के प्रयोग के साक्ष्य करीब 800 ईसा पूर्व से मिलते हैं। 

6-मृद्भाण्ड

उत्तर वैदिक काल के लोग चार प्रकार के मृद्भांडों से परिचित थे-- काला-लाल मृद्भाण्ड, काली पालिशदार मृद्भाण्ड, चित्रित धूसर मृद्भाण्ड और लाल मृद्भाण्ड।

लाल मृद्भाण्ड सर्वाधिक प्रचलित था और समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाया गया है। चित्रित धूसर मृद्भाण्ड से कटोरे व थालियां निर्मित की जाती थी जिनका प्रयोग धार्मिक कृत्यों और भोजन के लिए किया जाता था।

7-व्यापार

उत्तर वैदिक आर्यों को समुद्र का ज्ञान हो गया था। इस काल से साहित्य में पश्चिमी और पूर्वी दोनों ओर के समुद्रों का वर्णन मिलता है। व्यापार वस्तु विनिमय प्रणाली पर आधारित था। सिक्कों का नियमित प्रचलन नहीं हुआ था।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी

वेदों , ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों से इस काल के विभिन्न विज्ञानों के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है। तत्कालीन विद्वान गणित और ज्योतिष से परिचित थे। वैदिक लोग क्षेत्रफल, त्रिभुजों, वृत्तों, वर्ग आदि से परिचित थे।
शून्य की जानकारी तो ऋग्वेद के समय में ही हो चुकी थी जिसकी सहायता से बड़ी बड़ी संख्याएं दर्ज की जा सकती थीं।

वैदिक काल में ज्योतिष का विकास हो चुका था। वैदिक लोग ग्रहों और नक्षत्रों की गति जानते थे। इससे उन्हें सही पंचांग बनाने और सूर्य तथा चन्द्र ग्रहण के समय के बारे में भविष्यवाणी करने में सहायता मिलती थी।

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