भारत सरकार अधिनियम-1858 को भारतीय प्रशासन सुधार सम्बन्धी अधिनियम भी कहा गया है। अगस्त 1858 ई. में ब्रिटिश संसद ने एक अधिनियम पारित कर भारत में कंपनी के शासन को समाप्त कर दिया। इस अधिनियम द्वारा भारत के शासन का नियंत्रण ब्रिटिश सम्राट को सौंप दिया गया। इस समय विक्टोरिया ब्रिटेन की महारानी थीं।
इस अधिनियम द्वारा भारत के गवर्नर जनरल को वायसराय कहा जाने लगा। वायसराय अर्थ होता है- सम्राट का प्रतिनिधि।
भारत सरकार विधेयक-1858 पेश करने के कारण
कम्पनी के भारतीय शासन के विरुद्ध इंग्लैण्ड में असंतोष की भावना विद्यामान थी। वर्षों से उसे समाप्त करने हेतु आन्दोलन चल रहा था। उदारवादी, सुधारवादी और संसदीय शासन के समर्थक यह मांग कर रहे थे कि कम्पनी जैसी व्यापारिक संस्था के हाथों में भारत जैसे विशाल देश का शासन भार नहीं सौंपा जाना चाहिये। संसद ने समय - समय पर विभिन्न एक्ट्स पारित किये जिनके माध्यम से कम्पनी पर संसद का प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास किया गया। किन्तु शासन को अपने अधिकार में करने के लिए एक नए बिल की आवश्यकता थी।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की समाप्ति की पृष्ठभूमि पहले ही तैयार हो चुकी थी। इसके भ्रष्ट कुशासन के विरुद्ध इंग्लैण्ड में अंसतोष चरम सीमा पर पहुँच चुका था। कम्पनी से ब्रिटेन की सरकार को आर्थिक लाभ भी नहीं हो रहा था। कम्पनी ने भारत के बुहत बड़े भू - भाग पर अधिकार कर लिया था। अतः वह एक व्यापारिक संस्था के स्थान पर राजनीतिक सत्ता बन चुकी थी। परिणामस्वरूप ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत एक संवैधानिक विरोधाभास उत्पन्न हो गया था। इसे दूर करने के लिए एक बिल लाने की जरूरत थी।
1857 का महान विद्रोह भारतीय इतिहास की एक असाधरण तथा महत्त्वपूर्ण घटना है। इस क्रान्ति के फलस्वरूप कम्पनी के प्रशासन की त्रुटियों का भांडा फूट गया। अतः ब्रिटिश सरकार ने 1858 ई. में एक विधेयक लाना पड़ा जिससे कि भारत में कम्पनी के शासन का अन्त किया जा सके और भारतीय प्रदेशों का प्रबन्ध सीधा सम्राट हाथों में दिया जा सके।
भारत सरकार अधिनियम-1858 का पारित होना
1857 ई. में इंग्लैण्ड में आम चुनाव हुए और लॉर्ड पामर्स्टन वहाँ के प्रधानमंत्री बन गये। 12 फरवरी 1858 ई. को लॉर्ड पामर्स्टन ने 'हाउस ऑफ कॉमन्स' में एक विधेयक प्रस्तुत किया। इसमें उसने द्वैध शासन प्रणाली के दोषों को दूर करने पर जोर दिया और ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अन्त कर भारतीय प्रदेशों का शासन प्रबन्ध इंग्लैण्ड की सरकार के हाथों में हस्तान्तरित करने का प्रस्ताव रखा। किन्तु कतिपय कारणों से पामर्स्टन को त्यागपत्र देना पड़ा और विधेयक पास नहीं हो पाया।
इसके बाद लार्ड डरबी प्रधानमंत्री बने। उनके मंत्रिमंडल के एक नेता डिजरैली ने 26 मार्च 1858 को 'हाउस ऑफ कॉमन्स' में भारत का शासन सम्राट को हस्तान्तरित करने के लिए एक विधेयक प्रस्तुत किया। उसने प्रस्तावित किया कि भारत के शासन की जिम्मेदारी सम्राट के एक मंत्री के हाथों में सौप दी जाये, जो 18 सदस्यों की एक कौंसिल की सहायता से शासन का संचाल करें। डिजरैली का यह बिल उपहास का विषय बन गया और स्वतः ही समाप्त हो गया।
30 अप्रैल 1858 को कॉमन्स सभा में स्टैनले द्वारा प्रस्तुत 14 प्रस्तावों को पास किया गया। इन प्रस्तावों के आधार पर 1858 ई. का विधेयक तैयार किया गया। जिसे अन्त में संसद के विधेयक के रूप में पास कर दिया। 2 अगस्त 1858 ई. को सम्राज्ञी के हस्ताक्षर से यह भारत सरकार अधिनियम-1858 बना। 1 दिसम्बर 1858 ई. को संचालक मण्डल की अन्तिम सभा हुई और बड़े ही हृदयस्पर्शी शब्दों में बहुमूल्य तथा विशाल भारतीय साम्राज्य उपहार के रूप में ब्रिटिश साम्राज्ञी को अर्पित कर दिया गया।
भारत सरकार अधिनियम-1858 की प्रमुख विशेषताएँ
●ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त कर शासन की जिम्मेदारी ब्रिटिश क्राउन को सौंप दी गयी।
●भारत का गवर्नर जनरल अब भारत का वायसराय कहा जाने लगा।
●बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स एवं बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल के समस्त अधिकार 'भारत सचिव' को सौंप दिये गये।
●भारत सचिव ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का एक सदस्य होता था जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय 'भारतीय परिषद' का गठन किया गया। जिसमें 7 सदस्यों की नियुक्ति 'कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स' एवं शेष 8 की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार करती थी।
●भारत सचिव व उसकी कौंसिल का खर्च भारतीय राजकोष से दिया जायगा।
●संभावित जनपद सेवा में नियुक्तियाँ खुली प्रतियोगिता के द्वारा की जाने लगीं जिसके लिए राज्य सचिव ने जनपद आयुक्तों की सहायता से निगम बनाए।
●इस अधिनियम के लागू होने के बाद 1784 ई. के 'पिट एक्ट' द्वारा स्थापित द्वैध शासन पद्धति पूरी तरह समाप्त हो गयी। देशों व राजाओं का क्राउन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित हो गया और डलहौजी की 'राज्य हड़प नीति' निष्प्रभावी हो गयी।
भारत सरकार अधिनियम-1858 की प्रमुख धाराएं
1858 का अधिनियम अधिनियम फॉर बैटर गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया के नाम से प्रसिद्ध है। इस अधिनियम द्वारा भारतीय प्रदेशों पर से कम्पनी का राज्य समाप्त कर दिया गया और उसे इंग्लैण्ड की सरकार के हाथों में सौंप दिया गया। इस अधिनियम की प्रमुख धारायें निम्नलिखित थीं--
◆कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था में परिवर्तन
●भारतीय प्रदेशों का शासन कम्पनी से छीनकर सम्राट को सौंप दिया गया। अब भारत का प्रशासन साम्राज्ञी और उसके नाम से होने लगा। ईस्ट इण्डिया कम्पनी समाप्त हो गयी।
●भारत की या भारत से प्राप्त होने वाली सब प्रादेशिक तथा अन्य आयें और देशी राज्यों पर प्रभुसत्ता का अधिकार तथा उनसे कर वसूलने का अधिकार सम्राट में निहित कर दिया गया।
●इस अधियनिम ने संचालक मण्डल, नियंत्रण मण्डल तथा गुप्त समिति का अन्त कर दिया और उनके सारे कार्य तथा अधिकार ब्रिटिश सम्राट के एक प्रमुख मंत्री को सौंप दिये गये जो ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का प्रमुख सदस्य होता था। उसे भारत सचिव का नाम दिया गया।
●भारत सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक परिषद् बनाई गयी जिसका नाम भारत परिषद् रखा गया। इस परिषद् के 15 सदस्यों में से 8 सदस्य इंग्लैण्ड के सम्राट के द्वारा नियुक्त किये जाने थे और शेष 7 सदस्य उस समय विद्यमान संचालकों में से चुने जाने थे।
●इण्डिया कौंसिल की बैठक सप्ताह में कम से कम एक बार होनी जरूरी थी। इसकी गणपूर्ति के कोरम के लिए 5 सदस्यों की उपस्थिति आवश्यक मानी गयी।
●इण्डिया कौंसिल के सदस्यों को इंग्लैण्ड की राजनीति से अलग रखने के लिए संसद की बैठकों में भाग लेने तथा मत देने के अधिकार से वंचित कर दिया गया।
●संचालकों को केवल एक ही बार 7 सदस्यों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। यह स्पष्ट कर दिया गया कि भविष्य में रिक्त होने वाले स्थानों की पूर्ति सम्राट द्वारा की जायेगी।
●भारत सचिव और उसकी परिषद के सदस्यों के वेतन, इण्डिया ऑफिस के समस्त व्यय, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ऋण आदि भारतीय राजस्व से देने की व्यवस्था की गई।
●यह भी व्यवस्था की गई कि भारत सचिव प्रतिवर्ष भारतीय प्रदेशों की आमदनी और खर्च का हिसाब ब्रिटिश पार्लियामेंट के सामने पेश करे और भारतीय जनता की नैतिक तथा भौतिक उन्नति के सम्बन्ध में भी नियमानुसार प्रतिवर्ष संसद के समक्ष रिपोर्ट प्रस्तुत करे।
●भारत सचिव को एक निगम निकाय घोषित किया गया जो भारत और इंग्लैण्ड में मुकदमा चलाने का अधिकार रखता था और जिसके विरुद्ध भी मुकदमा चलाया जा सकता था।
●इंग्लैण्ड में भारत सम्बन्धी मामलों का निर्देशन भारत सचिव करेगा और हर आदेश-पत्र पर उसके हस्ताक्षर अनिवार्य होंगे। भारत सरकार की ओर से ब्रिटिश सरकार को भेजे जाने वाली सभी प्रलेख उसके नाम से सम्बोधित किये जायेंगे।
●परिषद के निर्णय साधारण तौर पर बहुतम से लिये जाये थे| यदि भारत सचिव उचित समझता तो वह परिषद के निर्णयों की अवहेलना कर अपनी इच्छानुसार काम भी कर सकता था। परन्तु ऐसा करते समय उसे लिखित में उन कारणों को बताना पड़ता था जिनसे विवश होकर उसे परिषद् के बहुमत के निर्णय के विरुद्ध कार्य करना पड़ा। युद्ध, शान्ति या रियासतों से समझौता के बारे में भारत सचिव बिना परिषद से पूछे आदेश जारीकर सकता था।
●भारत सचिव परिषद् की बैठकों की अध्यक्षता करता था। उसे मतों के बराबर होने पर निर्णायक वोट देने का भी अधिकार था। वह कुछ विशेष मामलों में अपनी परिषद् के निर्णय के विरुद्ध भी इच्छानुसार काम कर सकता था परन्तु भारतीय राजस्व, नियुक्तियों, भारत सरकार की तरफ से ऋण लेने और भारतीय सम्पत्ति को खरीदने व बेचने तथा गिरवी रखने के लिए उसे अपनी परिषद के निर्णय को मानना पड़ता था।
◆भारत की शासकीय व्यवस्था से सम्बन्धित उपबन्ध
भारत के वायसराय और प्रेसीडेंसियों के गवर्नरों की नियुक्ति भारत सचिव और उसकी कौंसिल के परामर्श से सम्राट करेगा।
●अनुबन्धित लोक सेवकों की नियुक्ति भारत सचिव द्वारा निर्मित नियमों के अन्तर्गत खुली प्रतियोगिता के द्वारा की जायेगी।
●इस अधिनियम द्वारा कम्पनी की सब सेनाएँ तथा उनका प्रबन्ध ब्रिटिश ताज के अधीन कर दिया गया।
●इस अधिनियम में यह स्पष्ट कर दिया गया कि जब कभी किसी झगड़े या युद्ध के सम्बन्ध में भारत सरकार को आदेश दिया जाए तो उसके जारी होने के तीन महीने के अन्दर या संसद की बैठक शुरू होने के एक महीने के अन्दर पार्लियामेन्ट के दोनों सदनों के सम्मुख अवश्य प्रस्तुत कर दिया जाना चाहिए।
●कम्पनी के द्वारा की गई सन्धियों का सम्राट आदर करेगा। कम्पनी के सभी अनुबन्धों, समझौतों और उत्तरदायितत्त्वों को भारत सचिव और उसकी परिषद् द्वारा लागू किया जायेगा।
भारत सरकार अधिनियम-1858 के दोष
यद्यपि इस अधिनियम से भारत की शासन सत्ता कम्पनी से छीनकर ब्रिटिश ताज को दे दी गयी थी परन्तु भारतीयों के लिए उसका राजनीतिक महत्त्व नहीं के बराबर रहा। इससे भारतीयों को कोई राजनीतिक अधिकार नहीं दिये और न ही भारत के प्रशासन में भाग लेने की छूट दी। इसमें उमड़ती राष्ट्रीय चेतना पर कोई ध्यान नहीं दिया। अतः भारतीयों में असंतोष की भावना पूर्ववत् बनी रही। कनिघंम ने लिखा है कि, "इस अधिनियम में कोई ठोस परिवर्तन के स्थान पर नाममात्र के परिवर्तन हुए।
भारत शासन अधिनियम-1858 का महत्व
1858 के अधिनियम को सामान्यतया भारत के अधिक अच्छे शासन के लिए बनाया गया अधिनियम भी कहा जाता है। इस एक्ट का भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे कम्पनी के शासन का अन्त हो गया और एक ऐसी शासन व्यवस्था का सूत्रपात हुआ जो आगामी 60 वर्ष तक भारतीय प्रशासन का निर्देशन करती रही। इसके अतिरिक्त इस एक्ट के परिणामस्वरूप भारतीयों में सुख प्राप्त करने की नवीन आशा उत्पन्न हुई और भारत में एक स्वस्थ वातावरण की सृष्टि हुई। इस प्रकार इस एक्ट का संवैधानिक तथा क्रान्तिकारी महत्त्व है।
जी. एन. सिंह ने लिखा है कि, "1858 के अधिनियम का बड़ा भारी महत्त्व है क्योंकि इसके द्वारा भारतीय इतिहास में एक महान युग का अन्त हुआ और एक नये युग का आरम्भ हुआ।"
मार्शमैन के शब्दों में, "अपने शासन का परित्याग करते समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने महारानी विक्टोरिया को एक ऐसे साम्राज्य की भेंट दी, जो रोम के साम्राज्य से भी अधिक शानदार था। इस प्रकार इस अधिनियम के द्वारा भारत के संवैधानिक इतिहास में एक नया युग आरम्भ हुआ।"
इस अधिनियम का महत्त्व इस बात में भी निहित है कि इसने इंग्लैंड में द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर दिया जो पिछले 74 वर्षों से कम्पनी के प्रशासन का आधर बनी हुई थी। द्वैध शासन व्यवस्था में उत्तरदायित्व का विभाजन सरकार और कम्पनी के संचालन मण्डल तथा नियंत्रण मण्डल के बीच था।
अधिनियम का महत्त्व इस बात में भी निहित है कि इसने भारतीय परिषद् की स्थापना की। भारतीय परिषद् एक स्वतन्त्र संस्था थी जिसके सदस्यों को भारतीय समस्याओं का पूरा ज्ञान होता था।
इस अधिनियम के द्वारा भारत सचिव के पद की व्यवस्था की गई जो संवैधानिक दृष्टिकोण से बहुत महत्त्वपूर्ण थी। भारत सचिव ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का महत्त्वपूर्ण सदस्य होता था। उसके पास बहुत अधिकार तथा शक्तियाँ होती थी। इस पद पर लार्ड सेलिसबरी, सर चार्ल्स वुड, लार्ड चर्चिल तथा जॉन मार्ले जैसे प्रमुख विद्वानों और कुशाग्र बुद्धि तथा प्रतिभा सम्पन्न राजमर्मज्ञों ने काम किया।
इस अधिनियम ने देशी शासकों और विदेशी शासकों के बीच एक नया स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित किया। ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि विजय तथा अन्य राज्यों को अपने राज्यों में मिला लेने की नीति को त्याग दिया जायेगा। इससे देशी राजाओं से अंग्रेजों मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो गया। यह भी निःसन्देह इस अधिनियम का महत्त्वपूर्ण परिणाम था।
इस अधिनियम ने धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और लोकसेवा में भर्ती के लिए जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव समाप्त कर दिया गया। इससे आम जनता को बहुत बड़ी राहत मिली।
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