अगस्त 1784 ई. में पिट्स इण्डिया एक्ट पास हुआ। इसने पहले के अधिनियमों के दोषो को दूर करने का प्रयास किया। इस एक्ट कंपनी के प्रदेशों को 'भारत में ब्रिटिश अधिकृत क्षेत्र' कहा गया।
1773 ई. के रेग्युलेटिंग एक्ट की कमियों को दूर करने और ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन भारतीय क्षेत्रों के प्रशासन को अधिक सक्षम और उत्तरदायित्वपूर्ण बनाने के लिये ब्रिटिश संसद द्वारा अनेक कदम उठाये गए। इनमें सबसे महत्पूर्ण कदम 1784 ई. में पिट के भारत अधिनियम (पिट्स इंडिया एक्ट) को पारित किया जाना था।
पिट्स इंडिया एक्ट का नाम ब्रिटेन के तत्कालीन युवा प्रधानमंत्री विलियम पिट के नाम पर रखा गया था। इस अधिनियम द्वारा ब्रिटेन में बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की स्थापना की गयी जिसके माध्यम से ब्रिटिश सरकार भारत में कंपनी के नागरिक, सैन्य और राजस्व सम्बन्धी कार्यों पर पूर्ण नियंत्रण रखती थी। किन्तु भारत के साथ व्यापार पर कंपनी का एकाधिकार बना रहा। अतः ब्रिटिश भारत पर ब्रिटिश सरकार और कंपनी दोनों के शासन अर्थात द्वैध शासन की स्थापना की गयी।
गवर्नर जनरल को महत्वपूर्ण मुद्दों पर परिषद् के निर्णय को न मानने की शक्ति प्रदान की गयी। मद्रास व बम्बई प्रेसीडेन्सी को उसके अधीन कर दिया गया और उसे भारत में ब्रिटिश सेना का सेनापति बना दिया गया।
पिट्स इंडिया एक्ट में एक प्रावधान विजयों की नीति पर रोक लगाने से भी सम्बंधित था लेकिन उस प्रावधान को नजरअंदाज कर दिया गया क्योंकि ब्रिटेन के आर्थिक हितों, जैसे ब्रिटेन की फैक्ट्रियों से निकलने वाले तैयार माल के लिए बाजार बनाने और कच्चे माल के नए स्रोतों की खोज करने के लिए नए क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करना जरूरी था।
यह एक्ट इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है कि इसने कंपनी की गतिविधियों और प्रशासन के सम्बन्ध में ब्रिटिश सरकार को सर्वोच्च नियंत्रण शक्ति प्रदान कर दी। यह पहला अवसर था जब कंपनी के अधीन क्षेत्रों को ब्रिटेन के अधीन क्षेत्र कहा गया।
पिट्स इंडिया एक्ट की प्रमुख धाराएं या उपबंध
फॉक्स इण्डिया बिल के असफल होने के बाद विलयम पिट ने जनवरी 1784 ई. में पार्लियामेंट में ईस्ट इण्डिया बिल पेश किया। अगस्त 1784 ई. में यह बिल पार्लियामेंट द्वारा पास होने और सम्राट की स्वीकृति प्राप्त करने पर एक्ट बन गया। इसे पिट्स इण्डिया एक्ट नाम दिया गया। एक्ट की प्रमुख धाराएँ अथवा उपबंध निम्नलिखित थे--
●कम्पनी के शासन पर नियंत्रण रखने के लिए एक बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की स्थापना की गई, जबकि उसके व्यापारिक कार्य का प्रबन्ध कम्पनी के संचालकों के हाथों में रहने दिया गया।
●पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा स्थापित बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल में राज्य सचिव तथा वित्त मंत्री के अतिरिक्त चार अन्य सदस्य रखे गये, जिनकी नियुक्ति और पदमुक्ति का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। सदस्यों के वेतन आदि का खर्चा भारत के राजस्व से वसूल करने का निर्णय किया गया। यह नियंत्रण बोर्ड कम्पनी के संचालको के ऊपर था और इसके अधीन की कम्पनी के मालिकों का बोर्ड भी था।
●बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का अध्यक्ष राज्य सचिव होता था। इसकी अनुपस्थिति में वित्त मंत्री बोर्ड के सभापति के रूप में कार्य करता था।
●बोर्ड की तीन सदस्यों की उपस्थिति इसकी गणपूर्ति के लिए आवश्यक थी।
●कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल को नहीं दिया गया। पुनिया के शब्दों में इस प्रकार संरक्षकता निदेशक समिति और कम्पनी के हाथों में ही रहने दी गई और देश इस प्रबन्ध से संतुष्ट हो गया।
●बोर्ड को कम्पनी के सैनिक, असैनिक तथा राजस्व सम्बन्धी मामलों की देखभाल, निर्देशन तथा नियंत्रण के विस्तृत अधिकार दिए गए। बोर्ड कम्पनी के डाइरेक्टरों के नाम आदेश भी जारी कर सकता था। इस तरह ब्रिटिश सरकार ने बोर्ड के माध्यम से कम्पनी के सब मामलों पर नियंत्रण स्थापित कर दिया।
●इस एक्ट के अनुसार संचालकों में से तीन सदस्यों की एक गुप्त समिति गठित की गई , जिसके द्वारा बोर्ड अपने गुप्त आदेश भारतीय सरकार को भेज सकता था। इस समिति के सदस्य गुप्त आदेशों को दूसरे संचालकों को नहीं बता सकते थे और न ही वे उन आदेशों में कोई परिवर्तन या संशोधन कर सकते थे।
●संचालक मण्डल के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की आज्ञाओं और निर्देशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया।
●इस एक्ट द्वारा संचालक मण्डल के पास केवल कम्पनी के व्यापारिक कार्यों की संचालन की शक्ति रही।
●संचालक मण्डल को कम्पनी के समस्त पदाधिकारियों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया, किन्तु उन्हें वापस बुलाने का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। इसके अतिरिक्त बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल भी किसी भी पदाधिकारी को भारत से वापस बुला सकता था। गवर्नर जनरल की नियुक्ति के लिए संचालन मण्डल की स्वीकृति लेना आवश्यक था।
●इस एक्ट के अनुसार इंग्लैण्ड में कम्पनी के भारतीय शासन पर नियंत्रण करने की शक्ति को दो प्रकार के अधिकारियों के हाथों में थी। पहले अधिकारी डायरेक्टर थे, जिनका कम्पनी के समस्त मामलों पर सीधा नियंत्रण था। संचालक मण्डल के पास कम्पनी के समस्त अधिकारियों की नियुक्ति तथा व्यापारिक कार्यों के संचालन की शक्ति थी। दूसरे अधिकार बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सदस्य थे। ये ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि थे और इनका कम्पनी के शासन सम्बन्धी सब मामलों पर प्रभावशाली नियंत्रण था।
●इस एक्ट में यह निश्चित किया गया कि संचालक मण्डल केवल भारत में काम करने वाले कम्पनी के स्थायी अधिकारियों में से ही गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्य नियुक्त करेगा।
●गवर्नर जनरल परिषद को विभिन्न प्रान्तीय शासनों पर अधीक्षण, निर्देशन तथा नियंत्रण का पूर्ण अधिकार दिया गया।
●पिट्स एक्ट में यह उपबंध किया गया कि गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की अनुमति के बिना कोई युद्ध अथवा सन्धि नहीं कर सकेगा।
●इस एक्ट में यह घोषणा की गयी कि भारत में विस्तार और विजय की योजनाओं को चलाना ब्रिटिश राष्ट्र की नीति, मान और इच्छा के विरुद्ध है।
●प्रादेशिक गवर्नरों की स्थिति को दृढ़ बनाने के लिए उनकी कौंसिल के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई। इनमें एक प्रान्त का कमाण्डर-इन-चीफ भी होगा।
●प्रान्तीय गवर्नरों तथा उसकी कौंसिल के सदस्यों की नियुक्ति संचालको द्वारा की जाती थी, परन्तु उनको हटाने या वापस बुलाने का अधिकार ब्रिटिश ताज ने अपने पास रखा।
●बम्बई तथा मद्रास की सरकार के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों को पालन करना अनिवार्य कर दिया गया।
●प्रान्तीय सरकारों के लिए सभी प्रकार के निर्णयों की प्रतिलिपियाँ बंगाल सरकार की सेवा में प्रस्तुत करना अनिवार्य कर दिया गया।
●बंगाल की सरकार की आज्ञा के बिना प्रादेशिक सरकारें न तो युद्ध आरम्भ कर सकती थीं और नही उन्हें भारतीय राजाओं के साथ सन्धि आदि करने का अधिकार था।
●बंगाल सरकार के आदेशों की अवहेलना करने पर वह अधीनस्थ सरकार के गवर्नर को निलम्बित कर सकती थी।
इस प्रकार पिट्स इंडिया एक्ट के उपबन्ध भारत के एकीकरण की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम थे। जी. एन. सिंह के शब्दों में, "1784 के एक्ट ने भारत के एकीकरण को और बढ़ा दिया, इससे मद्रास और बम्बई के राज्यपालों पर गवर्नर जनरल की शक्तियाँ बढ़ा दीं और उनकी ठीक-ठीक सीमा भी निर्धारित कर दी।"
पिट्स इंडिया एक्ट पारित होने के कारण
●रेग्युलेटिंग एक्ट की त्रुटियाँ
रेग्यूलेटिंग एक्ट में अनेक दोष रह गए थे। वारेन हेस्टिंग्स ने इस एक्ट के अनुसार कार्य किया और उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अतः उनको दूर करने हेतु एक नवीन एक्ट की आवश्यकता थी। इसे भी पढ़ें- रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोष
●कम्पनी के भारतीय प्रशासन में अव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार
यद्यपि रेग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा गवर्नर जनरल, उनकी परिषद् के सदस्य और सुप्रीम कोर्ट के जजों को निजी व्यापार करने, रिश्वत या भेंट की सख्त मनाही कर दी गई थी, तथापि वे अप्रत्यक्ष रूप से बहुत से अनुचित तरीकों से भारत में धन जमा कर लेते थे। अतः ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के भारतीय प्रशासन में अव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए इस दिशा में एक नया एक्ट पारित करना आवश्यक समझा।
●ब्रिटिश सरकार का कम्पनी पर अपर्याप्त नियंत्रण
ब्रिटिश संसद में मई 1782 ई. में वारेन हेस्टिंग्स तथा उसके एक अन्य सहयोगी हार्नवाई को भारत से वापस बुलाने के लिए एक प्रस्ताव पास किया गया। परन्तु कम्पनी के स्वामी मण्डल ने इसे अस्वीकार कर दिया और हाऊस ऑफ कॉमन्स की इच्छा के विरुद्ध वारेन हेस्टिंग्स को बंगाल का गवर्नर जनरल बनाए रखा। क्योंकि वह कम्पनी को अनुचित ढंग से धन इकट्ठा करके देता था। अतः ब्रिटिश सरकार ने अनुभव किया कि रेग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा संसद का कम्पनी पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित नहीं हुआ है और इस त्रुटि को शीघ्रातिशीघ्र दूर करने की आवश्यकता है। अतः इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सरकार ने एक एक्ट पारित करना आवश्यक समझा।
●कम्पनी की गलत नीति
कम्पनी के कर्मचारियों ने भारत में मैसूर के शासक, मराठों और रोहिलों से बिना किसी विशेष कारण के युद्ध आरम्भ कर दिए थे। इन युद्धों में कम्पनी का अपार धन व्यय हुआ। इनको आरम्भ करने से पूर्व कम्पनी ने ब्रिटिश सरकार की अनुमति प्राप्त नहीं की थी। अतः ब्रिटिश सरकार इन युद्धों सख्त विरुद्ध थी।
●अमरीकी बस्तियों का छीना जाना
अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम में इंग्लैण्ड की पराजय हुई, जिससे उसकी सत्ता तथा प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचा। इसके अतिरिक्त इंग्लैण्ड को अमेरिका की बहुमूल्य बस्तियों से हाथ धोने पड़े, जिसके कारण अंग्रेजों के व्यापार को जबरदस्त धक्का लगा। अमेरिकन बस्तियों के हाथ से निकल जाने के परिणामस्वरूप अंग्रेज सरकार की दृष्टि में भारतीय प्रदेशों का महत्त्व बहुत बढ़ गया।
प्रधानमंत्री पिट ने बिल प्रस्तुत करते समय स्वयं इस तथ्य की पुष्टि करते हुए यह शब्द कहे, अमेरिकन बस्तियों के छिन जाने से इंग्लैण्ड के लिए भारतीय प्रदेशों का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। अब हमें अपने हितों को सुरक्षित करने के लिए इनमें कुशल शासन प्रबन्ध की व्यवस्था करनी चाहिए। अतः ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के शासन पर अपना प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित करने के लिए एक नये एक्ट की आवश्यकता अनुभव की।
●कम्पनी द्वारा ब्रिटिश सरकार से आर्थिक सहायता की माँग
जब कम्पनी की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई, तो उसने मार्च 1783 ई. में ब्रिटिश सरकार से आर्थिक सहायता माँगी। इससे ब्रिटिश संसद को कम्पनी शासन में हस्तक्षेप करने का अवसर प्राप्त हो गया। फॉक्स ने कम्पनी की तानाशाही के विरुद्ध आवाज उठाई, जबकि बर्क ने उसके भ्रष्टाचार की बहुत निन्दा की। बर्क ने अपने भाषण को समाप्त करते हुए कहा कि सहायता और सुधार एक साथ होंगे। ब्रिटेन की जनता ने भी बर्क के विचारों का समर्थन किया। अतः डुण्डास ने अप्रैल 1783 ई. में कम्पनी के संविधान में सुधार करने के लिए एक बिल पेश किया।
●डुण्डास और फॉक्स के बिल
पिट से पहले रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए तथा ब्रिटिश सरकार का कम्पनी पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए डुण्डास ने अप्रैल 1783 ई. में तथा फॉक्स ने नवम्बर 1783 ई. में बिल रखे थे, परन्तु अनेक कारणों से वे पास नहीं हो सके थे। इन विधेयकों ने सरकार को कम्पनी के संविधान में सुधार करने के लिए अवश्य ही प्रेरित किया।
पिट्स इंडिया एक्ट का महत्व
पिट्स इण्डिया एक्ट का भारत के संवैधानिक इतिहास में बहुत महत्त्व है। इसने कम्पनी के मौलिक हितों पर आघात किए बिना उसे दृढ़ता प्रदान की और एक ऐसी शासन पद्धति का सूत्रपात किया, जो 1858 ई. तक प्रचलित रही। बर्क ने इस एक्ट के बार में लिखा था कि "अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इससे अधिक अच्छा तथा दक्ष उपाय सम्भवतः मनुष्य द्वारा नहीं बनाया जा सकता है।"
●कम्पनी के प्रशासन पर ससंदीय नियंत्रण की स्थापना
इस एक्ट के द्वारा पहली बार कम्पनी के भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजी राज्य का प्रदेश कहा गया और उन पर ब्रिटिश सरकार का वास्तविक नियंत्रण स्थापित करने के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की स्थापना की गई। इस बोर्ड का काम भारत में सैनिक तथा असैनिक प्रशासन का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण करना था।
एस. आर. शर्मा के शब्दों में, पिट्स इण्डिया एक्ट ने इंग्लैण्ड में भारतीय मामलों के निर्देशक के मौलिक सिद्धान्त को ही बदल दिया। स्वामी मण्डल शक्तिहीन हो गया तथा संचालक मण्डल ब्रिटिश सरकार के पूर्णत: अधीन हो गया। इस प्रकार, इस एक्ट के द्वारा कम्पनी पर ब्रिटिश संसद का वास्तविक नियंत्रण स्थापित हो गया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री पिट ने कम्पनी के संविधान में परिवर्तन किए बिना ही कम्पनी पर ब्रिटिश सरकार का वास्तविक नियंत्रण स्थापित कर दिया।
●स्वामी मण्डल की शक्तियों पर आघात
इस एक्ट द्वारा स्वामी मण्डल को शक्तिहीन बना दिया गया। वह भारत के सैनिक तथा असैनिक मालमों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। वह संचालकों के किसी ऐसे निर्णय को, जिसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने स्वीकृति दे दी हो, नहीं बदल सकता था।
●कम्पनी के अधीन भारतीय प्रदेशों के एकीककरण का प्रयास
इस एक्ट ने कुशल प्रशासन तथा कम्पनी के अधीन भारतीय प्रदेशों के एकीकरण के लिए गवर्नर जनरल के हाथों में समस्त शक्तियों को केन्द्रित कर दिया। इस प्रकार, इस नई नीति से कम्पनी के भारतीय प्रशासन में बहुमूल्य सुधार हुआ और एकीकरण की नीति को प्रोत्साहन मिला।
●भारतीय शासन में सुधार
पिट्स इण्डिया एक्ट ने भारत सरकार की कार्यप्रणाली में आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण सुधार किए कौंसिल के सदस्यों की संख्या 4 से घटाकर 3 कर देने से गवर्नर जनरल और गवर्नरों की स्थिति दृढ़ हो गई। अब वे कार्यपालिका के वास्तविक प्रधान बन गए। उनके लिए अपनी कौंसिल पर नियंत्रण बनाए रखना आसान हो गया। परिणामस्वरूप शासन प्रबन्ध की कार्यकुशलता में वृद्धि हुई।
●गवर्नर जनरल की स्थिति का सुदृढ़ होना
गवर्नर जनरल के पद का महत्त्व पहले से अधिक बढ़ गया, क्योंकि उसका इंग्लैण्ड के मंत्रिमण्डल के साथ घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित हो गया। इससे न केवल उसकी स्थिति ही सुदृढ़ हुई, अपितु उसकी प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई।
●अहस्तक्षेप की नीति का उद्घाटन
इस एक्ट द्वारा भारतीय राजाओं के प्रति एक नई नीति अपनाई गई। धारा 34 के अनुसार यह घोषणा की गई थी कि भारत में साम्राज्य विस्तार की नीति ब्रिटिश राष्ट्र के नीति, सम्मान और इच्छा के विरुद्ध है। अतः गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् संचालकों या गुप्त समिति की आज्ञा के बिना भारतीय राजाओं से युद्ध नहीं कर सकते थे। अहस्तक्षेप की नीति से भारतीय राजनीति में एक नये युग का आरम्भ हुआ।
●इंग्लैंड एक विशेष न्यायालय की स्थापना
भारत में अंग्रेजों द्वारा किए गए अपराधों की सुनवाई करने के लिए इंग्लैण्ड में एक विशेष न्यायालय की स्थापना की गई। यह निश्चित रूप से एक अच्छा सुधार था।
●उपहारों को लेने की मनाही
भारतीयों के दृष्टिकोण से यह एक्ट इसलिए भी महत्त्वपूर्ण था कि इसके द्वारा कम्पनी के पदाधिकारियों के लिए उपहार आदि लेना अपराध घोषित कर दिया गया और इस नियम की अवहेलना करने वालों के लिए कठोर दण्ड निश्चित किए गए।
●इंग्लैण्ड में कम्पनी पर दोहरा शासन
इस एक्ट ने कम्पनी के शासन पर दोहरा नियंत्रण स्थापित कर दिया। कम्पनी के राजनीतिक व शासन सम्बन्धी कार्यों पर नियंत्रण, बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का था तथा व्यापारिक कार्यों पर नियंत्रण, संचालकों का था।
●1858 ई. तक भारतीय संविधान का आधार
यह एक्ट 1858 ई. तक भारतीय संविधान का आधार बना रहा। इल्बर्ट ने लिखा है कि एक्ट के द्वारा जो नियंत्रणों की पद्धति कायम हुई, चाहे उसमें कुछ समय बाद सुधार भी किया गया है, परन्तु वह किसी न किसी रूप में 1858 ई. तक चलती रही।
●कम्पनी के कार्यों का विभाजन
पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा कम्पनी के कार्यों को दो भागों में विभक्त किया गया- प्रशासनिक तथा व्यापारिक। राजनीतिक व शासन सम्बन्धी कार्यों पर नियंत्रण रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 6 सदस्यों का एक बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल स्थापित किया जबकि कम्पनी के व्यापारिक कार्यों को संचालकों के अधिकार में ही रहने दिया गया। इस प्रकार, लन्दन में भारतीय मामलों की देखभाल के लिए 1784 ई. में दोहरी शासन व्यवस्था की स्थापना की गई।
पिट्स इंडिया एक्ट का प्रभाव
इस एक्ट के प्रभाव से अब कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स बोर्ड की पूर्व अनुमति के बिना कोई भी खरीद (थैला, झोला, लिफाफा, सरकारी आदेश पत्र का लिफाफा ) भारत नहीं भेज सकता था। इसी प्रकार भारत से जो खरीद आते थे, वे बोर्ड के सामने रखे जाते थे। गवर्नर जनरल की नियुक्ति पहले की भाँति कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स करता थे, परन्तु इंग्लैण्ड का राजा उसे वापस बुला सकता था।
गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई, जिनमें से एक प्रधान सेनापति होता था। कौंसिल के सहित गवर्नर जनरल को युद्ध, राजस्व तथा राजनीतिक मामलों में बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेंसी पर अधिक नियंत्रण प्रदान कर दिया गया।
कौंसिल के सहित गवर्नर जनरल को बोर्ड आफ कंट्रोल की सहमति बिना युद्ध की घोषणा करने अथवा युद्ध शुरू करने के उद्देश्य से कोई संधि वार्ता चलाने से रोक दिया गया। एक्ट में बाद में एक संशोधन कर दिया गया, जिसके द्वारा गवर्नर जनरल को जब वह आवश्यक समझे, अपनी कौंसिल के निर्णय को अस्वीकार कर देने का अधिकार दे दिया गया।
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