रेग्यूलेटिंग एक्ट-1773|Regulating Act

बंगाल में कुप्रशासन से उपजी परिस्थितियों ने ब्रिटिश संसद को ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों की जाँच करने के लिए बाध्य कर दिया। इस जाँच से पता चला कि कंपनी के उच्च अधिकारी अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रहे हैं। उस समय कंपनी वित्तीय संकट से भी गुजर रही थी और ब्रिटिश सरकार के समक्ष एक मिलियन पौंड के ऋण हेतु आवेदन भी भेज चुकी थी।

Regulating-act-1773

ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा दीवानी की प्राप्ति और कुछ क्षेत्रों पर अधिकार के कारण इंग्लैण्ड की सरकार ने भारतीय मामलों में विशेष रुचि लेनी शुरू कर दी। ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के सदस्यों ने यह अनुभव किया कि कम्पनी का शासन बहुत दोषपूर्ण है। अतः कम्पनी के तथा राष्ट्र के हितों को ध्यान में रखते हुए उस पर संसद का नियंत्रण स्थापित करना अत्यन्त आवश्यक है।

रेग्यूलेटिंग एक्ट कब पारित किया गया?


ब्रिटिश संसद ने महसूस किया कि भारत में कंपनी की गतिविधियों को नियंत्रित करने की जरूरत है और इसी जरूरत को पूरा करने के लिए लार्ड नार्थ की सरकार ने 19 जून, 1773 ई. को ईस्ट इण्डिया कम्पनी रेग्यूलेटिंग एक्ट पास किया। यह एक्ट भारत के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप हेतु ब्रिटिश सरकार द्वारा उठाया गया पहला कदम था।

रेग्युलेटिंग एक्ट-1773  का उद्देश्य कंपनी के हाथों से राजनीतिक शक्ति छीनने की ओर एक कदम बढ़ाना था। इस एक्ट द्वारा नए प्रशासनिक ढांचे की स्थापना के लिए भी कुछ विशेष कदम उठाये गए। इसके तहत ब्रिटिश संसद ने कंपनी की कलकत्ता फैक्ट्री के अध्यक्ष (जिसे बंगाल का गवर्नर कहा जाता था) को कंपनी के अधीन भारत के सभी क्षेत्रों का गवर्नर जनरल बना दिया और बम्बई व मद्रास के दो अन्य गवर्नरों को उसके अधीन कर दिया। उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की एक परिषद् का गठन किया गया।

इस एक्ट में न्यायिक प्रशासन के लिए कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना का प्रस्ताव भी शामिल किया गया।

इस एक्ट के बारे में जी. एन. सिंह ने लिखा है, यह एक्ट महान संवैधानिक महत्ता का है, क्योंकि इसने पहली बार संसद को यह अधिकार दिया कि वह जिस तरह की चाहे, उस तरह की सरकार स्थापित करने का आदेश भारत में दे सकती थी, जो अधिकार अभी तक कम्पनी का बना हुआ था।

रेग्यूलेटिंग एक्ट को लाने के कारण


कम्पनी का भारतीय प्रदेशों पर अधिकार और संविधानिक कठिनाइयाँ

ईस्ट इण्डिया कम्पनी मौलिक रूप से एक व्यापारिक संस्था थी, लेकिन प्लासी और बक्सर के युद्धों में विजय प्राप्त होने के परिणामस्वरूप बंगाल, बिहार और उड़ीसा में उसका राज्य स्थापित हो गया था। ब्रिटिश कानून के अनुसार कोई भी प्राइवेट संस्था या व्यक्ति ब्रिटिश सम्राट की आज्ञा के बिना किसी विदेशी भूभाग पर अधिकार नहीं कर सकता था। अतः कम्पनी के क्षेत्राधिकार ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष एक अनोखा तथा विरोधी प्रश्न खड़ा कर दिया।

इस संवैधानिक समस्या को हल करने के लिए दो ही उपाय थे- या तो ब्रिटिश सरकार कम्पनी के भारतीय प्रदेशों को अपने अधिकार में ले ले या कम्पनी को अपने नियंत्रण में पूर्णतया मुक्त कर दे ल। कम्पनी के अधिकारी भी यह तर्क दने लगे थे कि उन्होंने मुगल सम्राट से बंगाल, बिहार और उड़ीसा आदि प्रदेशों की केवल दीवानी ही प्राप्त की है। अतः इस संवैधानिक समस्या को ब्रिटिश सरकार ने एक एक्ट के द्वारा सुलझना ही उचित समझा।

बंगाल की जनता की दुर्दशा

द्वैध शासन व्यवस्था के कारण बंगाल में शासकीय अव्यवस्था फैल गई और कम्पनी के कर्मचारियों ने लूट-मार आरम्भ कर दी, जिसके कारण वहाँ के लोगों को अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा और उनकी स्थिति दयनीय हो गई। रिचर्ड बेचर ने अपने पत्र में लिखा कि अंग्रेजों को यह जानकर दुःख होगा कि जब से कम्पनी के पास दीवानी अधिकार आए है, बंगाल के लोगों की दशा पहले की अपेक्षा अधिक खराब हो गई है। सर ल्यूयिश ने लिखा कि सन् 1765 ई . से लेकर 1772 ई . तक ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन इतना दोषपूर्ण एवं भ्रष्ट रहा है कि संसार भर की सभ्य सरकारों में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। अतः बंगाल की जनता बहुत दुःखी हो गई और ब्रिटिश सरकार का हस्तक्षेप अनिवार्य हो गया।

द्वैध शासन व्यवस्था

1765 ई. में लार्ड क्लाइव ने बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था स्थापित की। यह व्यवस्था बहुत दोषपूर्ण थी, क्योंकि इसमें कम्पनी तथा नवाब दोनों में से किसी ने भी शासन प्रबन्ध की जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं ली। परिणामस्वरूप, बंगाल में अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गई। वेरस्ट ने अपनी पुस्तक गवर्नर ऑफ बंगाल (1767-69) में लिखा है कि द्वैध शासन के परिणामस्वरूप बंगाल में अत्याचारी शासन कायम हो गया। संक्षेप में, द्वैध शासन के परिणामस्वरूप बंगाल में अराजकात और अव्यवस्था फैल गई थी । कुशासन अपनी चरम सीमा पर था, व्यभिचार का बोल-बाला था। ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सरकार के लिए कम्पनी के कार्यों में हस्तक्षेप करना अनिवार्य हो गया था।

कम्पनी के कर्मचारियों द्वारा शोषण और धन जमा करना

भारत में काम करने वाले कम्पनी के कर्मचारियों के वेतन कम थे, लेकिन उन्हें निजी व्यापार करने का अधिकार था। अतः वे कुछ रिश्वत लेकर देशी व्यापारियों का माल अपने नाम से मँगवा लेते थे, जिससे देशी व्यापारियों को चुँगी नहीं देनी पड़ती थी। कम्पनी के कर्मचारी बहुत निर्दयी तथा लालची थे। वे धन कमाने के लिए अनुचित उपयों का सहारा लेते थे। वे गरीब भारतीयों से न केवल जबरदस्ती रूपया वसूल किया करते थे, अपितु निर्दोष प्रजा पर बहुत अत्यचार भी करते थे।

1770 ई . में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा, जिसके कारण लोगों के कष्ट बढ़ गए और जनता की स्थिति और दयनीय हो गई। पुनिया ने लिखा है कि कम्पनी के कर्मचारी इतने निर्दय और निर्लज्ज व लोभी थे कि उन्होंने गरीब जनता के कष्टों से भी लाभ उठाया और अकाल की दशाओं का उपयोग निजी अर्थ प्राप्ति के लिए किया। कम्पनी के ये कर्मचारी अपार धन लेकर इंग्लैण्ड में संसद के निर्वाचन में व्यय करते थे और वहाँ के राजनीतिक वातावरण को दूषिक करते थे। अतः ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के मामलों की नीतियों पर कुछ नियंत्रण करना आवश्यक समझा।

कम्पनी की पराजय

1769 ई. में मैसूर के शासक हैदरअली ने कम्पनी को पराजित कर दिया। उसने मद्रास सरकार से अपनी शर्ते बलपूर्वक मनवा लीं। इस पराजय से अंग्रेजों की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा। अतः इंग्लैण्ड की सरकार और वहाँ की जनता ने कम्पनी की नीतियों पर कुछ नियंत्रण करना आवश्यक समझा।

कम्पनी का दिवालियापन

1765 ई. में बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त करते समय क्लाइव ने यह अनुमान लगाया था कि बंगाल का कुल राजस्व 40 लाख पौण्ड होगा और खर्च आदि निकालकर कम्पनी को 1,65,000 पौण्ड की वार्षिक बचत होगी। पार्लियामेन्ट के सदस्य भी कम्पनी के धन-धान्य का कुछ भाग प्राप्त करना चाहते थे। अतः ब्रिटिश सरकार और कम्पनी के बीच एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार कम्पनी ने ब्रिटिश सरकार को भारतीय प्रदेशों पर अधिकार जमाये रखने के बदले में चार लाख पौण्ड वार्षिक खिराज के रूप में देना स्वीकार कर लिया। ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी इस रकम को प्रतिवर्ष अदा नहीं कर सकी। इससे सरकार को मौका मिला कि वह कम्पनी के कार्यों की जाँच-पड़ताल करे।

संसदीय जाँच और लार्ड नार्थ का रेग्यूलेटिंग बिल

ब्रिटिश सरकार ने ऊपर लिखे कारणों से विवश होकर कम्पनी के कार्यों की जाँच के लिए दो संसदीय समितियाँ नियुक्त कीं, इनमें से एक सेलेक्ट कमेटी और दूसरी सीक्रेट (गुप्त) कमेटी थी। सेलेक्ट कमेटी ने 12 और सीक्रेट कमेटी ने 6 रिपोर्ट पेश की, जिनमें कम्पनी प्रशासन की बहुत अधिक आलोचना की गई थी।

इन रिपोर्टों के आधार पर प्रधानमंत्री लार्ड नार्थ ने कम्पनी के मामलों को नियमित करने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी बिल तैयार किया और 18 मई , 1773 ई . को ब्रिटिश संसद के सामने रखा। बिल पास होने के बाद रेग्यूलेटिंग एक्ट से कहलाया। बिल को पेश करते समय लार्ड नार्थ ने संसद सदस्यों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि मेरे बिल की प्रत्येक धारा का उद्देश्य कम्पनी के शासन को सुदृढ़, सुव्यवस्थित और सुनिश्चित बनाना है।

एडमण्ड बर्क ने इस बिल की कटु आलोचना करते हुए कहा कि ब्रिटिश सरकार का कम्पनी के कार्यों में हस्तक्षेप नीति विरुद्ध, विवेकहीन होने के साथ-साथ देश की न्यायसंगता तथा विधान के भी प्रतिकुल है। इसके अतिरिक्त यह बिल राष्ट्र द्वारा दिए गए अधिकार, न्याय, परम्परा और राष्ट्र के प्रति जनता के विश्वास पर आधात है।

रेग्यूलेटिंग एक्ट के उपबन्ध


मद्रास और बंबई को बंगाल के अधीन किया जाना

1773 ई. के पूर्व बंगाल, मद्रास और बम्बई की प्रेसीडेन्सियाँ एक-दूसरे से स्वतंत्र थी। इस एक्ट के द्वारा बंगाल के गवर्नर को भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया और बम्बई तथा मद्रास की प्रेसीडेन्सियों को उसके अधीन कर दिया गया। बंगाल के गवर्नर जनरल की अनुमित के बिना बम्बई और मद्रास की प्रेसीडेन्सियों को किसी भी शक्ति के साथ युद्ध एवं सन्धि करने का अधिकार नहीं था।

गवर्नर जनरल की परिषद की स्थापना

गवर्नर जनरल की सहायता के लिए एक परिषद की व्यवस्था की गई। इसमें चार सदस्य होते थे। उनका कायर्काल पाँच वर्षों का था। उन्हें डाइरेक्टरों के अनुरोध पर सम्राट द्वारा हटाया जा सकता था। गवर्नर जनरल की परिषद् एक सामूहिक कार्यपालिका थी। इसका निर्णय बहुमत द्वारा होता था । इस एक्ट में वारेन हेस्टिंग्ज को गर्वनर जनरल का पद प्रदान किया गया और परिषद् के चार अन्य सदस्यों के लिए बारवेल, फ्रांसिस, क्लेवरिंग तथा मानसून आदि के नामों का उल्लेख किया गया था।

परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया, परन्तु संचालक मण्डल की सिफारिश पर सम्राट द्वारा किसी भी समय उन्हें हटाया जा सकता था। गवर्नर जनरल को अपनी परिषद् के फैसले को मानना पड़ता था। वह अपनी परिषद् के फैसलों का उल्लंघन नहीं कर सकता था। गवर्नर जनरल केवल उसी समय अपना निर्णायक मत दे सकता, जब परिषद् के सदस्यों के मत दो बराबर भागों में बँट गये हों। गवर्नर जनरल का वार्षिक वेतन 25000 पौण्ड तथा परिषद् के प्रत्येक सदस्य का वेतन 10000 पौण्ड निर्धारित किया गया।

ब्रिटिश सरकार का कम्पनी पर नियंत्रण स्थापित करना

कम्पनी को ब्रिटिश सम्राट के पूर्ण नियंत्रण में ले लिया गया। कम्पनी के कर्मचारियों, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तथा समिति के सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को प्राप्त हुआ। इस एक्ट द्वारा यह निश्चित कर दिया गया कि भारत के राजस्व से सम्बन्धित समस्त मामलों की रिपोर्ट कम्पनी के डाइरेक्टर ब्रिटिश वित्त विभाग के अध्यक्ष के समक्ष प्रस्तुत करेंगे और सैनिक तथा राजनीतिक कार्यों की रिपोर्ट सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के समक्ष रखेंगे। इस प्रकार , ब्रिटिश संसद को एक व्यक्तिगत निगम के मामलें में हस्तक्षेप करने का अधिकार दिया गया।

कम्पनी की शासकीय व्यवस्था में परिवर्तन

डायरेक्टरों की अवधि पहले एक वर्ष थी, अब चार वर्ष कर दी गई और साथ ही संचालक मण्डल के एक चौथाई सदस्यों को प्रति वर्ष रिटायर होने की व्यवस्था कर दी गई। इस एक्ट में यह भी निश्चित कर दिया गया कि एक ही सदस्य को दुबारा चुने जाने के पूर्व एक वर्ष का अवकाश आवश्यक होगा।

कानून बनाने का अधिकार

गवर्नर जनरल परिषद को कंपनी के अधीन क्षेत्रों में कुशल प्रशासन के लिए नियम, आदेश तथा विनियम बनाने का अधिकार दिया गया। यह भारत सरकार को कानून बनाने के अधिकार की शुरूआत थी। गवर्नर जनरल परिषद द्वारा निर्मित सभी विनियमों की स्वीकृति सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आवश्यक थी और इसके लिए हर विनियम का न्यायालय में रजिस्ट्रेशन करना पड़ता था। इस प्रकार भारत में कार्यपालिका को न्यायालय के अधीन रखा गया।

सर्वोच्च न्यायालय

1773 ई . के एक्ट में फोर्ट विलियम के स्थान पर सुप्रीम कोर्ट ऑफ जुडिकेचर नामक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना का प्रावधान किया गया। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य 3 न्यायाधीश थे। न्यायाधीशों की नियुक्ति इंग्लैण्ड के सम्राट के द्वारा की जाती थी, वही उन्हें पदच्युत भी कर सकता था।

सुप्रीम कोर्ट को कम्पनी के क्षेत्राधिकार में रहने वाले अंग्रेजों और कम्पनी के कर्मचारियों के दीवानी, फौजदारी, धार्मिक और जल सेना सम्बन्धी मुकदमें सुनने का अधिकार दिया गया। इसके फौजदारी क्षेत्राधिकार से गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् के सदस्य बाहर थे।

उच्च अधिकारियों पर प्रतिबंध

इस एक्ट में कम्पनी के उच्च पदाधिकारियों को अच्छे वेतन देने की व्यवस्था की गई, जिससे कि वे घूँसखोरी या भ्रष्टाचार की ओर न झुकें। इतना हीं नहीं, उन्हें भारतीय राजाओं तथा लोगों से रिश्वत या भेंट लेने की मनाही कर दी गई। कम्पनी के कर्मचारियों के निजी व्यापार पर कठोर नियंत्रण स्थापित किया गया तथा निजी व्यापार करना दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया गया।

गवर्नर जनरल, परिषद् के सदस्य और सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीशों को निजी व्यापार करने से रोक दिया गया। अपराधियों को कड़ा आर्थिक दण्ड देने की व्यवस्था की गई। सार्वजनिक सम्पत्ति का गबन करने वाले और कम्पनी को धोखा देने वालों को जुर्माना और सजा देने की व्यवस्था की गई।


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