मौर्य काल की प्रशासनिक व्यवस्था का भारतीय प्रशासनिक इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। यह भारत की प्रथम केन्द्रीकृत प्रशासन व्यवस्था थी। मौर्य प्रशासन के अन्तर्गत ही भारत में पहली बार राजनीतिक एकता देखने को मिलती है।
मौर्य कालीन केंद्रीय प्रशासन
प्रशासन का केन्द्र बिन्दु राजा होता था। वह कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं व्यवस्थापिका प्रमुख होता था। मौर्य काल में गणराज्यों का ह्रास हुआ, जिससे राजतंत्रात्मक व्यवस्था की स्थिति मजबूत हुई।
राजा साम्राज्य के सभी महत्वपूर्ण पदों पर योग्य व्यक्ति की नियुक्ति करता था। साम्राज्य में मुख्यमंत्री एवं पुरोहित की नियुक्ति से पूर्व इनके चरित्र को अच्छी तरह जाँचा परखा जाता था, जिसे "उपधा परीक्षण" कहा जाता था।
मैगस्थनीज की इण्डिका से पता चलता है कि राजा की व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए सशस्त्र अंग रक्षिकाएँ भी होती थीं। राजा महल से बाहर युद्ध, यज्ञानुष्ठान, न्यायवितरण एवं आखेट के समय बाहर निकलता था।
मौर्य काल में सम्राट की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद की व्यवस्था होती थी। जिसमें 12, 16 या 20 सदस्य होते थे।
मंत्रिपरिषद के सदस्यों का चुनाव अमात्यों में से उपधा परीक्षण के बाद होता था। मंत्रिपरिषद के सदस्यों को 12 हजार पण वार्षिक वेतन मिलता था। इस परिषद की अधिकांश बैठकें गुप्त रूप से सम्पन्न होती थीं। सम्भवतः कोई भी निर्णय बहुमत के आधार पर लिया जाता था।
परिषद का राजा पर पूर्ण नियन्त्रण था किन्तु राजा परिषद के निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं था। चाणक्य के अर्थशास्त्र में शीर्षस्थ अधिकारी के रूप में तीर्थ का उल्लेख मिलता है। इन्हें महामात्र भी कहा जाता था। इनकी संख्या 18 थी।
1-प्रधानमंत्री और पुरोहित
पुरोहित प्रमुख धर्माधिकारी होते थे। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में ये दोनों विभाग चाणक्य के पास थे। बिन्दुसार का प्रधानमंत्री खल्लाटक तथा अशोक के प्रधानमंत्री राधागुप्त थे।
2-समाहर्ता
यह राजस्व विभाग का प्रमुख अधिकारी होता था। इसका प्रमुख कार्य राजस्व एकत्रित करना, आय-व्यय का ब्यौरा रखना एवं वार्षिक बजट तैयार करना होता था।
3-सन्निधाता-- यह राजकीय कोषाध्यक्ष होता था। इसका वेतन 24000 पण वार्षिक होता था।
4-सेनापति-- यह युद्ध विभाग का प्रधान होता था। इसका वेतन 48 हजार पण वार्षिक था।
5-युवराज-- राजा का उत्तराधिकारी
6-प्रदेष्ठा-- फौजदारी (कण्टकशोधन) न्यायालय का न्यायाधीश
7-नायक-- यह युद्ध में सेना का नेतृत्व करता था।
8-कर्मान्तिक-- साम्राज्य के उद्योग धंधों का प्रधान निरीक्षक।
9-व्यवहारिक-- यह दीवानी न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश होता था।
10-मन्त्रिमण्डल अध्यक्ष-- यह मंत्रिपरिषद का अध्यक्ष होता था।
11-दण्डपाल-- सेना की सामग्री को एकत्रित करने वाला अधिकारी।
12-अन्तपाल-- सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक।
13-दुर्गपाल-- देश के अन्दर के दुर्गों का रक्षक।
14-नागरक-- नगर का प्रमुख अधिकारी।
15-प्रशास्ता-- राजकीय आदेशों को लिपिबद्ध कराने वाला एवं राजकीय कागजातों को सुरक्षित रखने वाला अधिकारी।
16-दौवारिक या द्वारपाल-- राजमहलों की देख रेख करने वाला प्रमुख अधिकारी।
17-अन्तर्वशिक-- राजा की अंग रक्षक सेना का प्रमुख अधिकारी।
18-आटविक-- वन विभाग का प्रधान अधिकारी।
इसके अतिरिक्त अर्थशास्त्र में 26 अध्यक्षों का भी विवरण मिलता है। जो विभिन्न विभागों में अध्यक्ष के रूप में मंत्रियों के नीचे काम करते थे।
सम्भवतः मेगस्थनीज ने इन्हें मजिस्ट्रेट की संज्ञा दी थी। इन्हें 1000 पण वेतन के रूप में मिलता था। इनमें से कुछ प्रमुख अध्यक्षों का विवरण निम्नलिखित है
1-पण्याध्यक्ष-- वाणिज्य विभाग का अध्यक्ष
2-सुराध्यक्ष-- आबकारी विभाग का अध्यक्ष
3-सूनाध्यक्ष-- बूचड़खाने का अध्यक्ष
4-सीताध्यक्ष-- राजकीय कृषि विभाग का अध्यक्ष
5-अकराध्यक्ष-- खान विभाग का अध्यक्ष
6-कुप्याध्यक्ष-- वनों का अध्यक्ष
7-लक्षणाध्यक्ष-- छापेखाने का अध्यक्ष। यह राज्य में मुद्रा जारी करने वाला प्रमुख अधिकारी था
8-विविताध्यक्ष-- चरागाहों का अध्यक्ष
9-मुद्राध्यक्ष-- पासपोर्ट विभाग का अध्यक्ष
10-नवाध्यक्ष-- जहाजरानी विभाग का अध्यक्ष
11-संस्थाध्यक्ष-- व्यापारिक मार्गों का अध्यक्ष
12-पौतवाध्यक्ष-- मापतौल का अध्यक्ष
13-मानाध्यक्ष-- दूरी और समय से सम्बन्धित साधनों को नियन्त्रित करने वाला अध्यक्ष
14-अक्षपटलाध्यक्ष-- महालेखाकार
मौर्य कालीन प्रान्तीय प्रशासन
इस समय प्रान्त सबसे बड़ी प्रशासनिक इकाई के रूप में प्रचलित थे। प्रान्तों का प्रशासन राजपरिवार के ही किसी व्यक्ति द्वारा होता था, जिसे अशोक के अभिलेखों में "कुमार या आर्यपुत्र" कहा गया है।
केन्द्रीय प्रशासन की भाँति प्रान्तीय प्रशासन में भी एक मंत्रिपरिषद होती थी। प्रान्तीय मंत्रिपरिषद का केन्द्र से सीधा सम्पर्क होता था। प्रशासन की सुविधा के लिए अशोक ने अपने साम्राज्य को 5 प्रान्तों में बांट रखा था।
प्रान्त राजधानी
उत्तरापथ तक्षशिला
दक्षिणापथ सुवर्णगिरि
अवन्ति राष्ट्र उज्जयिनी
प्राची (पूर्वी प्रदेश) पाटलिपुत्र
कलिंग तोसली
सौराष्ट्र की स्थिति अर्ध स्वतन्त्र प्रान्त की थी। चन्द्रगुप्त के समय पुष्यगुप्त तथा अशोक के समय तुषास्फ यहां का प्रशासक था। इसकी जानकारी रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से मिलती है।
मौर्य काल में प्रान्तों को चक्र कहा जाता था। प्रत्येक प्रान्त में कई मण्डल होते थे, जिन पर महामात्य नामक अधिकारी होते थे। मण्डलों के अधिकारियों के नाम प्रदेष्ठा या प्रादेशिक भी मिलते हैं। मौर्य साम्राज्य के प्रमुख मण्डल निम्नलिखित थे-
मण्डल क्षेत्र
समापा तोसली क्षेत्र के अन्तर्गत
कौशाम्बी पाटलिपुत्र क्षेत्र के अन्तर्गत
इसिला सुवर्णगिरि क्षेत्र के अन्तर्गत
गिरिनार सौराष्ट्र क्षेत्र के अन्तर्गत
मण्डल जिलों में विभक्त थे जिन्हें आहार या विषय कहा जाता था। इनका प्रमुख अधिकारी विषयपति या स्थानिक कहलाता था।
स्थानिक के अधीन गोप होते थे, जो दस गाँवों के ऊपर शासन करते थे। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। गांव के मुखिया को ग्रामिक कहा जाता था।
मौर्य कालीन नगर प्रशासन
मैगस्थनीज की इण्डिका में पाटलिपुत्र के नगर प्रशासन का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार नगर का प्रमुख अधिकारी एस्ट्रोनोमोई था।
एग्रोनोमोई सड़क निर्माण के प्रमुख अधिकारी को कहा जाता था।
पाटलिपुत्र के नगर का प्रशासन 30 सदस्यों का एक मण्डल करता था। इसकी कुल 6 समितियां थी प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे।
1-शिल्प कला समिति
इसका प्रमुख कार्य नगर की सड़कों एवं भवनों का निर्माण करना तथा नगर की सफाई व्यवस्था करना था।
2-विदेश समिति
इसका मुख्य कार्य विदेशियों की देख-रेख तथा अप्रत्यक्ष रूप से उनकी गतिविधियों पर नजर रखना था।
3-जनसंख्या समिति-- यह समिति जन्म-मरण का विवरण रखती थी।
4-उद्योग व्यापार समिति
इसका कार्य वाणिज्य एवं व्यापार की देखभाल, वस्तुओं के मूल्यों का निर्धारण आदि करना था।
5-वस्तु निरीक्षक समिति
बाजार में बिकने वाली वस्तुओं में मिलावट का निरीक्षण करती थी।
6-कर निरीक्षक समिति
बिक्री कर को वसूलना एवं कर चोरी को रोकना। कर चोरी करने वाले को मृत्युदण्ड दिया जाता था।
मौर्य कालीन न्याय प्रशासन
मौर्य काल में सर्वोच्च न्यायालय राजा का न्यायालय होता था। सबसे छोटा न्यायालय ग्राम न्यायालय होता था। इसमें ग्रामिक ग्राम वृद्धों के साथ मिलकर न्याय करते थे।
अन्य न्यायालयों में क्रमशः संग्रहण न्यायलय, खार्वटिक न्यायालय, द्रोणमुख न्यायालय, स्थानीय न्यायालय, जनपद न्यायालय थे।
ग्राम न्यायालय तथा राजा के न्यायालय को छोड़कर शेष सभी न्यायालय दो प्रकार के होते थे।
1-धर्मस्थीय न्यायालय या दीवानी न्यायालय
यह दीवानी मामलों से सम्बन्धित न्यायालय था। इसके न्यायाधीश को धर्मस्थ या व्यवहारिक कहा जाता था।
2-कण्टकशोधन या फौजदारी न्यायालय
व्यक्ति और राज्य के बीच के विवादों का निपटारा इन न्यायालयों में होता था। इस न्यायालय के न्यायाधीश को प्रदेष्ठा कहा जाता था।
अर्थशास्त्र में विवाद के निर्णय के लिए कानून के चार अंगों का वर्णन है
1-धर्म-- यह सार्वभौमिक नियम था।
2-व्यवहार-- पुराणों के आधार पर निर्णय देना।
3-चरित्र-- गाँव में अपने रीति रिवाज एवं परम्परा को ध्यान में रखते हुए निर्णय देना।
4-राजाज्ञा-- राजा द्वारा बनाया गया कानून।
मौर्य काल में कठोर दण्ड व्यवस्था थी। मृत्युदण्ड, अंग विच्छेद, कारावास एवं जुर्माना जैसे दण्ड प्रचलित थे।
मौर्य कालीन सैन्य प्रशासन
केन्द्रीय शासन का एक महत्वपूर्ण विभाग सेना विभाग था। चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना में 6 लाख पैदल सैनिक, 50 हजार अश्वरोही सैनिक, 9 हजार हाथी व 8 हजार रथ थे।
मेगस्थनीज के अनुसार इस विशाल सेना के रख-रखाव हेतु 6 समितियों का गठन किया गया था, प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे।
प्रथम समिति-- जल सेना की व्यवस्था
द्वितीय समिति-- यातायात एवं रसद की व्यवस्था
तृतीय समिति-- पैदल सैनिकों की देख-रेख
चतुर्थ समिति-- अश्वारोही सेना की देख-रेख
पंचम समिति-- गज सेना की व्यवस्था
छठी समिति-- रथ सेना की देख रेख
सैन्य विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी सेनापति होता था, जिसे 48 हजार पण वार्षिक वेतन मिलता था।
युद्ध क्षेत्र में सेना का संचालन करने वाला अधिकारी नायक कहलाता था। इसे 12 हजार पण वार्षिक वेतन मिलता था।
अर्थशास्त्र में नवाध्यक्ष नामक अधिकारी का उल्लेख हुआ है जो मौर्यों के पास नौ-सेना के होने को प्रमाणित करता है।
चाणक्य ने पैदल सेना के 6 भागों का उल्लेख किया है--
1-मौल (स्थाई सेना),
2-भृतक (आवश्यकता पड़ने पर किराये की सेना),
3-श्रेणी बल (युद्ध में आजीविका चलाने वाले),
4-मित्र बल (मित्र राष्ट्र की सेना),
5-अमित्र बल (बन्दी बनाये गये सैनिक),
6-आटवी बल (जंगली सेना)
मौर्यों के काल में युद्धों में व्यूह रचना की जाती थी। मुख्य रूप से तीन व्यूहों का प्रयोग किया जाता था--भोग व्यूह, मण्डल व्यूह, असंहत व्यूह।
अर्थशास्त्र में तीन प्रकार के युद्धों का वर्णन है
१-प्रकाश युद्ध-- जो युद्ध आमने-सामने लड़ा जाये।
२-तूष्णी युद्ध-- इस युद्ध में दूसरे राज्यों के राजपरिवार में फूट डलवाकर राज्य का विनास करवा दिया जाता था। फुट डलवाने वाले "तूष्ण" कहलाते थे।
३-कूट युद्ध-- कूटनीतिक युद्ध।
अर्थशास्त्र में चार प्रकार के दुर्गों का भी उल्लेख मिलता है। जो निम्न प्रकार हैं
●औदक-- नदी द्वीप में बनाया गया दुर्ग।
●पर्वत-- पहाड़ो पर बनाया गया दुर्ग।
●धान्वन-- मरुभूमि के बीच बनाया गया दुर्ग।
●वन दुर्ग-- घने जंगलों में बनाये गये दुर्ग।
गुप्तचर व्यवस्था
मौर्य काल में गुप्तचरों का महत्वपूर्ण स्थान था। इन्हें "गूढ़ पुरुष" कहा जाता था। गुप्तचर विभाग का प्रधान अधिकारी सर्पमहामात्य कहलाता था। मौर्य शासन में दो तरह के गुप्तचर कार्य करते थे।
1-संस्था
ये गुप्तचर संस्थाओं में संगठित होकर एक ही स्थान पर रुककर कार्य करते थे। ये 5 प्रकार के थे--कापटिक (छात्र वेश), उदास्थित (सन्यासी वेश), गृहपतिक (किसान वेश), वैदेहक (व्यापारी वेश), तापस (तपस्वी वेश)
2-संचार-- ये गुप्तचर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए कार्य करते थे।
कुछ ऐसे भी गुप्तचर होते थे जो अन्य देशों में नौकरी कर लेते थे और सूचनाएं भेजते थे। ऐसे गुप्तचरों को "उभयवेतन" कहा जाता था।
गुप्तचरों के अतिरिक्त शान्ति व्यवस्था बनाने रखने तथा अपराधों की रोकथाम के लिए पुलिस भी होती थी जिसे रक्षिन कहा जाता था।
Thanks sir
ReplyDeleteGood
ReplyDeleteVery good
ReplyDeleteMourya kalin sabhyta ki pramukh kon konsi hai?
ReplyDeletePlease give me and..
Mourya kalin bhasha ki sthiti par report dale
ReplyDeleteVery very good ans sir ji
ReplyDeleteVery good
ReplyDeleteI can understand ...thnku sir
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ReplyDeleteथोड़ा डिप ज्यादा हे...very nice..good..useful..12th ke stenderd ka (wanted)
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