भारत में यूरोपीय कम्पनियों का आगमन पुर्तगालियों के साथ प्रारम्भ होता है। पुर्तगालियों के बाद क्रमशः डच, अंग्रेज, डेनिश तथा फ्रांसीसी भारत में व्यापार करने के लिए आये।
भारत में यूरोपीय व्यक्तियों का आना-जाना प्राचीन काल से ही था। वह यहां की व्यापारिक सम्पदा से बहुत अधिक प्रभावित थे।
यूरोप गर्म मसालों के लिए दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों पर निर्भर था। भारत एक ऐसा देश था जहाँ से वे पर्याप्त मात्रा में गर्म मसालें प्राप्त कर सकते थे।
अतः यूरोपीय नाभिक भारत आने के नये जलीय मार्ग की खोज करना चाहते थे। क्योंकि पुराने मार्ग असुरक्षित हो गये थे।
इसी प्रयास में कोलम्बस स्पेन से भारत के लिए नया समुद्री मार्ग खोजने चला। किन्तु वह 1494 में अमेरिका पहुँच गया। इस प्रकार अमेरिका की खोज हुई।
बार्थोलोम्यू डियास 1487 में आशा अन्तरीप पहुँच गया। जिसे उसने Cape of Good Hope अर्थात तूफानी अन्तरीप नाम दिया।
यूरोपीय कंपनियों के आगमन के लिए नये समुद्री मार्ग की खोज
सन 1497 में एक पुर्तगाली कैप्टन "वास्कोडिगामा" भारत के लिए नए समुद्री मार्ग की खोज में निकला। कई दिनों की यात्रा के बाद अब्दुल मनीद नामक गुजराती पथ प्रदर्शक की सहायता से 20 मई 1498 को वह भारत के पश्चिमी तट पर स्थित बन्दरगाह "कालीकट" पहुँचा।
इस प्रकार भारत के लिए एक नये यूरोपीय समुद्री मार्ग की खोज हुई। इस मार्ग को "Cape of Good Hope Route" नाम दिया गया।
कालीकट के तत्कालीन शासक जमोरिन ने वास्कोडिगामा का स्वागत किया। किन्तु जमोरिन का यह व्यवहार उस समय भारतीय व्यापार पर अधिकार जमाये हुए अरब व्यापारियों को पसंद नहीं आया।
इस मार्ग की खोज से पुर्तगालियों एवं भारत के मध्य व्यापार के क्षेत्र में एक नये युग का शुभारम्भ हुआ। वास्कोडिगामा भारत से वापस लौटते समय जो मसाले अपने साथ ले गया उससे उसने लगभग 60 गुना लाभ कमाया।
धीरे-धीरे पुर्तगालियों का भारत में आने का क्रम जारी हो गया। इन्होंने अपनी व्यापारिक कोठियां कालीकट, गोवा, दमन, दीव एवं हुगली के बन्दरगाहों पर स्थापित की।
पुर्तगालियों के बाद 1602 ई. में डच भारत में व्यापार करने के लिए आये। डच हॉलैंड (नीदरलैंड) के निवासी थे। डचों का संघर्ष पुर्तगालियों से हुआ।
डचों ने पुर्तगालियों को पराजित कर गुजरात में कोरोमण्डल समुद्र तट पर, बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा में अपनी व्यापारिक कोठियां स्थापित की।
भारत में डचों ने महत्वपूर्ण व्यापारिक कोठियां मूसलीपट्टम (1605 में डचों की पहली व्यापारिक कोठी), पुलीकट (1610 में), सूरत (1616 में), पीपली (1627 में), चिनसुरा (1653 में), बिमलीपट्टम, कराईकल, बालासोर, नागपट्टम, बड़ानगर, कोचीन, पटना, कासिम बाजार आदि स्थानों पर स्थापित की।
भारत व पूर्वी देशों से व्यापार करने के लिए "डच ईस्ट इंडिया कम्पनी" की स्थापना 1602 ईस्वी में की गई थी। यह एक संयुक्त पूँजी कम्पनी थी। क्योंकि इस कम्पनी का संगठन अनेक लघु कम्पनियों के संयोग से हुआ था।
डचों के बाद अंग्रेज भारत आये। अंग्रेजों ने 1608 ई. में "टॉमस एडवर्थ" के अधीन सूरत में एक व्यापारिक कोठी खोली।
कोठी को राजकीय मान्यता दिलवाने के उद्देश्य से ब्रिटेन के सम्राट जेम्स प्रथम ने 1608 ई. में कैप्टन हॉकिन्स को अपने राजदूत के रूप में मुगल सम्राट जहाँगीर के दरबार में भेजा।
हॉकिन्स 1609 ई. में मुगल दरबार पहुँचा और जहाँगीर से सूरत में बसने की इजाजत मांगी। किन्तु वह सफल न हो सका। 1611 में हॉकिन्स वापस चला गया।
1613 में एक आज्ञा पत्र द्वारा जहाँगीर ने अंग्रेजों को सूरत में स्थाई "कोठी" स्थापित करने की आज्ञा दे दी। इसके बाद 1623 ई. तक अंग्रेजों ने सूरत, भड़ौच, अहमदाबाद, मूसलीपट्टम, आगरा तथा अजमेर में कोठियां स्थापित कर ली। और धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत पर व्यापारिक एकाधिकार सा कर लिया।
अंग्रेजों के बाद डेन व्यापारी 1616 ई. में भारत आये। इन्होंने अपनी प्रथम व्यापारिक कोठी 1620 ई. में ट्रांकेबर में स्थापित की। किन्तु ये अंग्रेजों के आगे टिक नहीं पाये।
1745 में डेन व्यापारी अपनी सभी व्यापारिक कोठियां अंग्रेजों को बेचकर वापस चले गए।
फ्रांसीसियों ने भारत में सबसे अन्त में प्रवेश किया। फ्रांस में 1664 में "फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी" की स्थापना हुई। 1667 ई. में इस कम्पनी का अभियान दल भारत पहुँचा।
1668 में इस दल ने सूरत में पहली फ्रांसीसी कोठी स्थापित की। फ्रांसीसियों ने अपनी दूसरी कोठी मूसलीपट्टम में 1669 में स्थापित की।
अधिक से अधिक व्यापारिक लाभ कमाने की महत्वाकांक्षा तथा राज्य विस्तार की आकांक्षा ने इनके बीच युद्ध अनिवार्य कर दिया। जिसमें सफलता अंग्रेजों को प्राप्त हुई। पुर्तगाली, डच, अंग्रेज, डेन व फ्रांसीसियों के अतिरिक्त आस्टेड कम्पनी (1772) और स्वीडिश ईस्ट इंडिया (1731) कम्पनी भी भारत में आयी। किन्तु इन कम्पनियों का भारत में निवेश अल्प समय तक रहा।
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