चम्पारण सत्याग्रह|Champaran Satyagraha

चम्पारण सत्याग्रह 19 अप्रैल 1917 ई. में गाँधी जी के नेतृत्व में बिहार के "चम्पारण" जिले में शुरू किया गया। इसका उद्देश्य अंग्रेज बागान मालिकों के उत्पीड़न से किसानों को कानूनी रूप से मुक्ति दिलाना था।

 इस विद्रोह का मुख्य कारण बागान मालिकों द्वारा किसानों पर मनमाना लगान बढ़ाना तथा उन्हें नील की खेती करने के लिए विवश करना था।

चम्पारण आंदोलन

 दरअसल बिहार के इस जिले में बागान मालिकों और किसानों के बीच हुए अनुबंध के अनुसार किसानों को अपनी जमीन के 3/20 भाग पर नील की खेती करना अनिवार्य था। जिसे "तिनकठिया पद्धति" कहते थे।
 19वीं शताब्दी में रासायनिक रंगों की खोज ने नील को बाजार से बाहर कर दिया। अतः यूरोपियों ने नील खरीदना बन्द कर दिया। किसान भी नील की खेती बन्द करना चाहते थे। किन्तु अंग्रेज बागान मालिक किसानों की मजबूरी का फायदा उठा रहे थे और अनुबन्ध से मुक्त करने के लिए लगान और अन्य गैरकानूनी करों को मनमाने ढंग से लगा रहे थे। जिसके फलस्वरूप विद्रोह का प्रारम्भ हुआ।

गाँधी जी का चम्पारण सत्याग्रह में प्रवेश

 किसानों पर हो रहे अत्याचार को समाप्त करने के लिए स्थानीय नेता राजकुमार शुक्ल ने दिसम्बर 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में गाँधी जी से मुलाकात की। उन्होंने गाँधी जी को चम्पारण में किसानों पर हो रहे अत्याचारों के विषय में जानकारी दी और चम्पारण आने के लिए आमंत्रित किया।
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10 अप्रैल 1917 ई. में गाँधी जी अपने सहयोगियों ब्रज किशोर, सी. एफ. एंड्रूज, नारायण सिंह, राजकिशोर प्रसाद, एच. एस. पोलाक, राजेन्द्र प्रसाद, महादेव देसाई व जे. बी. कृपलानी के साथ चम्पारण पहुँचे।

 चम्पारण पहुँचकर गाँधी जी ने किसानों से मुलाकात की तथा कई गांवों का दौरा किया तथा कृषकों की वास्तविक स्थिति की जाँच की। उन्होंने किसानों को अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन की शिक्षा दी।

 इस आन्दोलन में गाँधी जी को विशाल जन समर्थन प्राप्त हुआ। अतः सरकार जून 1917 में एक जाँच समिति का गठन किया। जिसमें गाँधी जी को एक सदस्य के रूप में शामिल किया गया।

 इस जाँच समिति के सुझाव पर तिनकठिया पद्धति को समाप्त कर दिया गया तथा अंग्रेज बागान मालिक अवैध वसूली का 25% वापस करने के लिए राजी हो गये।

 इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही 1919 ई. में "चम्पारण कृषि अधिनियम" पारित किया गया। जिसमें किसानों की स्थिति सुधारने का प्रयास किया गया।
 चम्पारण सत्याग्रह के कुशल नेतृत्व से अभिभूत होकर रवीन्द्र नाथ टैगोर ने गाँधी जी को "महात्मा" की उपाधि प्रदान की थी। किन्तु एन. जी. रंगा ने इस सत्याग्रह का विरोध किया था।

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