ब्रिटिश काल में किसान आन्दोलन|Peasant Movement during the British period

किसान आंदोलन अंग्रेजों, जमींदारों, साहूकारों व महाजनों की शोषणकारी नीतियों के फलस्वरूप हुए। इनकी नीतियों से तंग होकर 19वीं शताब्दी के किसानों ने अपनी असहमति विद्रोहों, विरोधों और प्रतिरोधों के द्वारा जतायी। इन विरोधों का मुख्य उद्देश्य सामन्तशाही बन्धनों को तोड़ना अथवा ढीला करना था।

 19वीं शताब्दी के किसानों की ज्यादातर मांगें आर्थिक थी। इनका दायरा सीमित था तथा संघर्ष में न तो निरन्तरता थी न दीर्घकालीन संगठन।

 ये किसान भूमिभाटक बढ़ाने, बेदखली बन्द करने, साहूकारों की ब्याजखोरी का विरोध करने तथा यथास्थिति बरकरार रखने के लिए लड़े।

 इनका नेतृत्व स्थानीय नेताओं ने किया। इसलिए इनके प्रति अंग्रेजों का व्यवहार समझौता पूर्ण व नरम रहा। ये लोग लगान को अन्न के स्थान पर धन के रूप में देना चाहते थे।

 20वीं शताब्दी के किसान आन्दोलनों तथा राष्ट्रीय आन्दोलनों ने एक दूसरे को प्रभावित किया। अखिल भारतीय किसान सभाओं का गठन किया गया। इन सभाओं ने "जमींदारी उन्मूलन" जैसी व्यापक समस्या का समाधान खोजने का प्रयास किया। इस शताब्दी के कृषक आंदोलन का नेतृत्व राष्ट्रीय नेताओं के हाथ में चला गया।
 आदिवासी किसान विद्रोहियों ने अपने आपको जातीय आधार पर संगठित किया तथा धार्मिक नेताओं ने उन्हें नेतृत्व प्रदान किया। जिसके कारण 20वीं शताब्दी के विद्रोह व्यापक तथा प्रभावकारी हुए।

किसान आंदोलन के कारण


 अंग्रेजी राज के औपनिवेशिक काल में बदलती हुई भूमि व्यवस्था व भू-राजस्व की नवीन पद्धतियों ने किसानों का शोषण प्रारम्भ कर दिया।
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 जमींदारों, साहूकारों व महाजनों की शोषणकारी नीतियों ने किसानों की स्थिति को बदतर बना दिया।

 19वीं शताब्दी में प्रकृति की मार भी किसानों पर पड़ी। इस काल में भारत के भिन्न-भिन्न भागों में 24 छोटे-बड़े अकाल पड़े।

 अकाल के समय में भी लगान कठोरता से वसूला गया। लगान अदायगी करने के लिए किसान को महाजनों व साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता था। ये लोग किसानों का शोषण करते थे।

 अतः कृषकों ने अपने शोषण के विरुद्ध व अधिकारों की प्राप्ति हेतु कई विद्रोह किये। जिनमें कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं।

किसान आन्दोलन

नील विद्रोह (1859 से 1860 ई.)

 यह आंदोलन भारतीय किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के विरुद्ध किया गया। इस विद्रोह की शुरुआत 1859 ई. में बंगाल के नदिया जिले के 'गोविंदपुर' गाँव से हुई। इस विद्रोह का नेतृत्व स्थानीय नेता दिगम्बर विश्वास तथा विष्णु विश्वास ने किया था।

 1860 ई. में सरकार ने किसानों की मांगों को मानते हुए। बंगाल में नील की खेती की बाध्यता को समाप्त कर दिया।

 1859 ई. के नील विद्रोह का वर्णन "दीनबन्धु मित्र" ने अपनी पुस्तक "नील दर्पण" में किया है। इस आंदोलन का समर्थन हरिश्चन्द्र मुखर्जी ने "हिन्दू पैट्रियाट" के माध्यम से किया। अधिक पढें

पाबना विद्रोह (1873 से 1876 ई.)

 पाबना किसान विद्रोह 1873 ई. में बंगाल के पाबना जिले के "युसुफसराय परगना" में शुरू हुआ। इस विद्रोह के मुख्यतः दो कारण थे।

 पहला जमींदारों द्वारा लगान की दरों को कानूनी सीमा से अधिक बढ़ा देना और दूसरा 1859 ई. के अधिनियम द्वारा काश्तकारों को जमीन पर जो अधिकार मिले थे, उन अधिकारों से जमींदारों ने उन्हें वंचित कर दिया।

 जमींदारों की ज्यादती का मुकाबला करने के लिए 1873 ई. में पाबना जिले के "युसुफसराय" परगना में किसानों ने मिलकर एक "किसान संघ" की स्थापना की और किसानों को संगठित करना आरम्भ कर दिया।

 संगठित किसानों ने अहिंसक लड़ाई की, जुलूस निकाले, लगान हड़ताल की। किसानों ने पैमाइश की माप में परिवर्तन, अवैधानिक करों की समाप्ति तथा लगान की दर में कमी करने की मांगों को पूरा करवाना चाहा।

 पाबना विद्रोह के प्रमुख नेता ईशानचन्द्र राय, शंभुपाल, केशव चन्द्र राय एवं खोदी मल्लाह आदि थे।

 लेफ्टिनेंट गवर्नर "कैम्पबेल" ने पाबना आंदोलन का समर्थन किया। क्योंकि 'यह विद्रोह अंग्रेजों के विरोध में न होकर जमींदारों के विरोध में था।'

 पाबना के किसानों ने अपनी मांग में यह नारा दिया था कि "हम महारानी और सिर्फ महारानी की रैय्यत होना चाहते हैं।" इसी कारण सरकार की तरफ से इस आंदोलन को दबाने के प्रयास सिर्फ "भारतीय दंड संहिता" के प्रावधानों तक सीमित रहे।

 पाबना किसान विद्रोह का समर्थन कई युवा बुद्धजीवियों जैसे-बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, रमेश चंद्र दत्त आदि ने किया। इसके साथ ही "इण्डियन एसोसिएशन" के सदस्य सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, आनंदमोहन बोस, द्वारका नाथ गांगुली आदि ने किसानों के हितों की रक्षा के लिए अभियान चलाया तथा सभाएं आयोजित की।

 इन लोगों ने मांग की थी कि जमीन पर मालिकाना हक उन लोगों को दिया जाना चाहिए जो वस्तुतः उसे जोतते है।
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 सरकार ने पाबना किसानों की समस्याओं की जांच हेतु एक आयोग का गठन किया। जिसकी सिफारिश पर 1885 ई. में बंगाल का काश्तकारी अधिनियम पारित किया गया। जिसके द्वारा किसानों को उनकी जमीन वापस कर दी गयी। इस आंदोलन पर मुशर्रफ हुसैन ने "जमींदार दर्पण" नामक नाटक लिखा।

दक्कन किसान विद्रोह (1875 ई.)

 महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिलों में गुजराती एवं मारवाड़ी महाजन किसानों का शोषण कर रहे थे। 1864 ई. में अमेरिका में गृहयुद्ध समाप्त हो गया। जिसके कारण कपास की कीमतों में भारी गिरावट आयी। इस कमी को पूरा करने के लिए सरकार ने 1867 ई. में लगान की दर में 50% वृद्धि कर दी। जिससे किसान कर्ज लेने के लिए मजबूर हो गये।

 महाजनों ने इस परिस्थिति का लाभ उठाकर अधिकतम ब्याज लगाकर किसानों का शोषण किया। इन महाजनों के विरुद्ध आन्दोलन की शुरुआत 1874 ई. में शिरूर तालुका के "करड़ाह गाँव" में हुई। जब कालूराम नामक एक महाजन ने कर्जदार बाबा साहिब देशमुख के घर पर कब्जा करने का प्रयास किया।

 1875 ई. तक यह आंदोलन पूना, अहमदाबाद, सतारा, शोलापुर आदि जिलों में फैल गया। किसानों से साहूकारों के घरों एवं दुकानों को नष्ट कर दिया। फलतः सरकार ने "दक्कन उपद्रव आयोग" का गठन किया।

 आयोग के सुझाव पर किसानों की स्थिति में सुधार हेतु "दक्कन कृषक राहत अधिनियम-1879" पारित किया गया। जिससे किसानों को महाजनों के विरुद्ध संरक्षण प्राप्त हुआ।

मोपला विद्रोह

 केरल के मालावार क्षेत्र में रहने वाले मोपलाओं ने 1921 ई. में एक व्यापक विद्रोह किया। जिसे "मोपला विद्रोह" के नाम से जाना जाता है। यह विद्रोह अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध था। इस विद्रोह के मुख्य रूप से दो कारण थे-पहला कृषि नीतियों से जनित असन्तोष तथा दूसरा अंग्रेजों की "खिलाफत आंदोलन" विरोधी नीतियां।

 महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे राष्ट्रीय नेताओं ने इस आन्दोलन का सहयोग किया।
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 मोपला विद्रोह का नेतृत्व अली मुसलियार ने किया था। इस विद्रोह को दबाने के लिए सरकार ने सेना का सहारा लिया और हिन्दुओं को भड़काया। जिसके कारण यह आन्दोलन सम्प्रदायक हो गया। 1921 ई. के अन्त तक मोपला विद्रोह को बर्बरता पूर्वक दबा दिया गया।

कूका आन्दोलन

 इस आन्दोलन का प्रारम्भ 1840 ई. में भगत जवाहर मल उर्फ सेन साहब के नेतृत्व में पश्चिमी पंजाब में हुआ था। आरम्भ में यह आंदोलन धर्म तथा समाज सुधार के लिए चलाया गया था किन्तु बाद में यह राजनीतिक आन्दोलन में परिवर्तित हो गया, जिसका उद्देश्य अंग्रेजों को देश से बाहर निकलना था।

 रामसिंह के नेतृत्व में कूका आन्दोलन ने विद्रोह का रूप धारण कर लिया। 1871 ई. में कूका विद्रोहियों ने मालोड व मालेरकोटला रियासतों पर आक्रमण किया। अतः सरकार ने इस विद्रोह का बल पूर्वक दमन करने का निश्चय किया।

 1872 ई. में इस आंदोलन के प्रमुख नेता रामसिंह को कैदकर रंगून निर्वासित कर दिया गया। जहाँ 1885 ई. में इनकी मृत्यु हो गयी।

एका आन्दोलन (1921 से 22 ई.)

 एका आन्दोलन 1921 ई. में किसानों के पक्ष में चलाया गया। इस आन्दोलन का नेतृत्व मदारी पासी तथा सहदेव ने किया था। इसका मुख्य केन्द्र उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच, बाराबंकी और सीतापुर जिलों में था।

 आंदोलनकारियों की मांग यह थी कि "लगान में वृद्धि न की जाये तथा लगान का अन्न के स्थान पर नगद में रूपान्तरण किया जाये।" इस विद्रोह में मुख्यतः यादवों और पारसियों ने भाग लिया। 1922 ई. सैनिकों द्वारा इसे बलपूर्वक दबा दिया गया।

खेड़ा सत्याग्रह (1918 ई.)

 गुजरात के खेड़ा क्षेत्र के कुनबी-पाटीदार किसानों ने वर्ष 1918 ई. में अकाल पड़ने तथा प्लेग फैलने के कारण लगान को सरकार से माफ करने की प्रार्थना की। किन्तु सरकार ने किसानों की प्रार्थना पर ध्यान नहीं दिया। अतः मोहनलाल पाण्ड्या के नेतृत्व में किसानों ने आन्दोलन कर दिया।

 22 मार्च 1918 ई. में गाँधी जी ने इस आन्दोलन को अपना नेतृत्व देते हुए इसे सत्याग्रह का स्वरूप प्रदान किया। अतः सरकार को विवश होकर केवल समर्थ किसानों से ही लगान लेने का आदेश जारी करना पड़ा।

 इस सत्याग्रह में सरदार वल्लभ भाई पटेल, विठ्ठल भाई पटेल तथा गुजरात सभा ने महत्वपूर्ण सहयोग दिया।

बारदोली सत्याग्रह (1928 ई.)

 गुजरात में स्थित बारदोली के किसानों ने सरकार द्वारा बढ़ाये गये 30% लगान के विरोध में बल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में 1928 ई. में सत्याग्रह किया।

 सरकार ने इस आन्दोलन को कुचलने के लिए कई कदम उठाये किन्तु अन्त में उसे विवश होकर किसानों की मांगों को मानना पड़ा।

 एक न्यायिक अधिकारी बुमफील्ड और एक राजस्व अधिकारी मैक्सवेल ने सम्पूर्ण मामले की जांच कर 30% लगान वृद्धि को गलत ठहराते हुए इसे घटाकर 6.3% कर दिया। अधिक पढ़ें

चम्पारण सत्याग्रह (1917 ई.)

 बिहार के चम्पारण जिले के किसानों को अपनी जमीन के 3/20 हिस्से पर नील की खेती करनी पड़ती थी। इसे तिनकठिया पद्धति कहते थे।

 इस प्रथा के विरोध में चम्पारण के किसानों ने 1917 ई. में गाँधी जी नेतृत्व एक आन्दोलन किया। जिसे चम्पारण सत्याग्रह नाम दिया गया। इस सत्याग्रह के फलस्वरूप सरकार ने तिनकठिया पद्धति को समाप्त कर दिया। अधिक पढ़ें

तेभागा आन्दोलन (1946 से 50 ई.)

 भूमिकर की ऊंची दर के विरुद्ध यह आन्दोलन नवम्बर 1946 से 1950 ई. तक बंगाल में चलाया गया। यह संघर्ष मूलतः बटाईदार किसानों का संघर्ष था। इस आन्दोलन के नेतृत्वकर्ता कम्पाराम सिंह तथा भवन सिंह थे।

 बटाईदारों को भूमि के मालिकों को उपज का आधा या आधे से अधिक हिस्सा देना पड़ता था। जबकि "बंगाल भू-राजस्व आयोग (फ्लाउड कमीशन)" ने अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि किसान को उपज का 2/3 हिस्सा मिलना चाहिए।

 अतः बंगाल किसान सभा ने फ्लाउड कमीशन की रिपोर्ट को संघर्ष के बल पर लागू कराने का निर्णय लिया। इस तरह जो आन्दोलन उठा उसे तेभागा आन्दोलन कहा गया। आन्दोलन के फलस्वरूप किसानों को उपज का 2/3 हिस्सा मिलने लगा।

तेलंगाना आन्दोलन (1946 से 51 ई.)

 तेलंगाना हैदराबाद के निजाम की रियासत का अंग था। यहाँ लगभग 20 लाख किसान कृषि करते थे। निजाम ने इस क्षेत्र के किसानों की लगान बढ़ा दी और इन्हें कम दाम पर अनाज बेचने के लिए बाध्य किया जाने लगा। अतः किसानों ने जमींदारों, साहूकारों, व्यापारियों तथा निजाम के विरुद्ध 1946 ई. में विद्रोह कर दिया।

 किसानों की यह मांग थी कि हैदराबाद रियायत को समाप्त कर इसे भारत का अंग बना दिया जाये। स्वतंत्रता के पश्चात आन्दोलन स्वतः समाप्त हो गया।

वर्ली आन्दोलन (1945 ई.)

 वर्ली एक आदिम जाति थी जो बम्बई नगर से थोड़ी दूर पर रहती थी। ये लोग जंगल के ठेकेदारों, साहूकारों, धनी कृषकों तथा भू स्वामियों के शोषण से परेशान थे। अतः मई 1945 ई. में किसान सभा की सहायता से इन्होंने आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। 

बिजौलिया आन्दोलन (1913 से 1941 ई.)

 राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र के बिजौलिया में 1913 ई. में किसानों द्वारा लगान न देने का आन्दोलन चलाया गया। उस समय किसानों से 84 प्रकार के कर वसूल किये जाते थे।

 कृषकों के इस आन्दोलन को देखते हुए वहाँ के राजा ने 1922 ई. में एक जाँच आयोग गठित कर दिया। इसी बीच अंग्रेजों ने अपना एक प्रतिनिधि बिजौलिया भेजा। वह राजा तथा कृषकों के बीच समझौता करने सफल रहा।

 राजा ने 84 करों में से 35 करों को वापस ले लिया। इस आन्दोलन के मुख्य नेतृत्व कर्ता साधु सीताराम दास तथा विजय सिंह पथिक थे।
IMPORTANT QUESTIONS

Q-नील विद्रोह कब और कहाँ प्रारम्भ हुआ?
@-1859 ई. बंगाल में
Q-नील आन्दोलन का नेतृत्व किसने किया था?
@-दिगम्बर विश्वास और विष्णु विश्वास ने
Q-वह समाचार पत्र जिसने नील आन्दोलन का समर्थन किया था?
@-हिन्दू पैट्रिया
Q-नील विद्रोह पर दीनबन्धु मित्र ने कौन सा नाटक लिखा?
@-नील दर्पण
Q-किस अंग्रेज ने पाबना विद्रोह का समर्थन किया था?
@-लेफ्टिनेंट गवर्नर कैम्पबेल ने
Q-बंगाल काश्तकारी अधिनियम कब पारित किया गया?
@- 1885 ई. में
Q-पाबना आन्दोलन पर "जमींदार दर्पण" नामक नाटक किसने लिखा?
@-मुशर्रफ हुसैन ने
Q-दक्कन विद्रोह की शुरुआत कहाँ से हुई थी?
@-शिरूर तालुका के करड़ाह गाँव से
Q-"हम महारानी सिर्फ महारानी की रैय्यत होना चाहते हैं।" यह नारा किस आन्दोलन का था?
@-पाबना आन्दोलन का
Q-मोपला विद्रोह कहाँ और कब हुआ था?
@-केरल के मालाबार क्षेत्र में 1921 ई. में
Q-मोपला आन्दोलन का नेतृत्व किसने किया था?
@-अली मुसलियार ने
Q-मोपला कौन थे?
@-केरल के मालाबार क्षेत्र के मुसलमान पट्टेदारों तथा खेतिहरों को "मोपला" कहा जाता था। इनमें कुछ मुसलमान अरब मूल के थे तथा शेष हिन्दुओं की निम्न जाति तिय्या से थे जो मुसलमान बन गये थे।
Q-किस किसान क्रान्ति में जेहाद का नारा दिया गया था?
@-मोपला क्रान्ति में
Q-बकाश्त कृषक आन्दोलन कहाँ चलाया गया?
@-बिहार में
Q-स्वामी सहजानन्द ने बिहार किसान सभा की स्थापना कब की?
@- 1929 ई. में
Q-तेभागा आन्दोलन के नेतृत्वकर्ता कौन थे?
@-कम्पाराम सिंह तथा भवन सिंह
Q-तेभागा विद्रोह का उद्देश्य क्या था?
@-भू-स्वामियों को उपज का 1/3 भाग देना।
Q-बारदोली आन्दोलन के समय भारत का वाइसराय कौन था?
@-लार्ड इरविन
Q-कांग्रेस के नेताओं ने बारदोली सत्याग्रह का समर्थन किसके माध्यम से किया?
@-सर्वेन्ट ऑफ इंडिया सोसायटी के माध्यम से
Q-बल्लभ भाई पटेल की पुत्री मनीबेन पटेल ने किस आन्दोलन में भाग लिया?
@-बारदोली सत्याग्रह में
Q-प्रतापगढ़ जिले में किस ब्रिटिश अधिकारी को किसानों का हमदर्द कहा गया?
@-डिप्टी कमिश्नर मेहता को
Q-अखिल भारतीय किसान सभा का गठन कब किया गया?
@-1936 ई. लखनऊ में

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