महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 100 वर्ष बाद 383 ईसा पूर्व में कालाशोक के शासनकाल में वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ। इसकी अध्यक्षता सुबुकामी ने की।
इस संगीति में बौद्ध भिक्षुओं में कुछ बातों जैसे-दोपहर में भोजन के बाद विश्राम, खाने के बाद छाछ पीना, ताड़ी पीना, गद्देदार बिस्तर का प्रयोग करना, सोने चाँदी का दान लेना आदि को लेकर मतभेद हो गया।
जो उक्त नियमों के परिवर्तन के पक्ष में थे, महासंघिक (पूर्वी भिक्षु) कहलाये और जो परिवर्तन के पक्ष में नहीं थे, स्थविर अथवा थेरावादी (पश्चिमी भिक्षु) कहलाये।
चतुर्थ बौद्ध संगीति में बौद्ध धर्म स्पष्ट रूप से हीनयान और महायान दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया। हीनयान में वस्तुतः स्थविर थे जबकि महायान में महासंघिक थे।
चतुर्थ बौद्ध संगीति 102 ई. में कनिष्ठ के शासनकाल में कश्मीर के कुण्डलवन में आयोजित हुई। इसकी अध्यक्षता वसुमित्र से की जबकि उपाध्यक्ष अश्वघोष थे।
बौद्ध धर्म का हीनयान सम्प्रदाय
हीनयान का अर्थ निम्न मार्ग होता है। इस सम्प्रदाय के लोग बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों को मूलरूप में बनाये रखना चाहते थे।
हीनयान को श्रावकयान भी कहते हैं। हीनयान में बुद्ध को एक महापुरुष माना गया है। ये लोग मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते और न ही इनका कोई तीर्थ हैं। इस सम्प्रदाय के अनुयायियों में मांस खाना वर्जित है।
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हीनयान व्यक्तिवादी धर्म है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिए। इसका अन्तिम लक्ष्य अर्हत (निर्वाण) प्राप्त करना है।
हीनयान के ग्रंथ सामान्यतः पालि भाषा में लिखे गये हैं। इस सम्प्रदाय के अनुयायी लंका, दक्षिण भारत, बर्मा और थाईलैंड आदि देशों में मिलते हैं।
कालान्तर में हीनयान सम्प्रदाय दो उपसम्प्रदायों वैभाषिक तथा सौत्रान्तिक में विभाजित हो गया। वैभाषिक सम्प्रदाय मुख्यतः कश्मीर में प्रचलित था। इस मत के मुख्य आचार्य वसुमित्र तथा बुद्धदेव थे।
बौद्ध धर्म का महायान सम्प्रदाय
महायान का शाब्दिक अर्थ उत्कृष्ट मार्ग होता है। ये लोग बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों में समय के साथ परिवर्तन या सुधार करना चाहते थे।
महायान को बोधिसत्वयान भी कहते हैं। महायानी लोग बुद्ध को देवता मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं।
बुद्ध की प्रथम मूर्ति का निर्माण मथुरा कला शैली में हुआ। इस सम्प्रदाय के लोग लुम्बिनी, बोधगया, सारनाथ व कुशीनगर को पवित्र तीर्थ स्थल मानते हैं।
महायान सम्प्रदाय का अन्तिम लक्ष्य बोधिसत्व (मोक्ष) है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी उत्तर भारत, चीन, तिब्बत, जापान, कोरिया आदि में मिलते हैं।
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कालान्तर में महायान सम्प्रदाय भी दो शाखाओं में विभाजित हो गया। 1- माध्यमिकवाद या शून्यवाद, 2- योगाचारवाद या विज्ञानवाद। शून्यवाद के प्रवर्तक नागार्जुन तथा योगाचारवाद के प्रवर्तक मैत्रेयनाथ थे।
वज्रयान सम्प्रदाय
7वीं शताब्दी के करीब बौद्ध धर्म में तन्त्र मन्त्र का प्रभाव बढ़ने लगा, जिसके फलस्वरूप वज्रयान सम्प्रदाय का उदय हुआ। इस सम्प्रदाय में बुद्ध की अनेक पत्नियों की कल्पना की गई है।
यह सम्प्रदाय मूलतः बंगाल और बिहार में प्रचलित था। इसके सिद्धान्त मंजुश्री मूल कल्प तथा गुह्म समाज नामक ग्रंथों में मिलते हैं। कालान्तर में इस सम्प्रदाय से कालचक्रयान सम्प्रदाय तथा सहजयान सम्प्रदाय का उदय हुआ।
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