लार्ड इरविन और साइमन कमीशन ने इंग्लैण्ड प्रशासन पर विशेष रूप से बल दिया कि भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन बुलाया जाए जो भारतीय संवैधानिक समस्याओं पर विचार-विमर्श करे।
गोलमेज सम्मेलन की योजना को इंग्लैंड सरकार ने स्वीकार कर लिया। सम्मेलन में प्रायः सभी विचारधाराओं के व्यक्तियों को आमंत्रित किया गया। मुसलमान, हिंदू महासभा, सिक्ख, ईसाई, अनुसूचित जातियाँ, जमींदारों, उद्योगपतियों, यूरोपियनों, भारतीय नरेशों, इंग्लैंड के विभिन्न राजनीतिक दलों और भारतीय नरमपंथियों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया।
मार्च 1930 ई. में गांधीजी ने अवज्ञा आंदोलन आरंभ कर दिया इसलिए कांग्रेस ने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भाग नहीं लिया। इस गोलमेज सम्मेलन के तीन अधिवेशन हुए।
प्रथम गोलमेज सम्मेलन|First round table conference
(12 नवंबर 1930 से 19 जनवरी 1931)
जार्ज पंचम के द्वारा इस सम्मेलन का उद्घाटन किया गया था। सम्मेलन की अध्यक्षता इंग्लैंड के प्रधानमंत्री रेम्जे मैकडोनल्ड ने की। जार्ज ने भारत के राष्ट्रीय विकास का वर्णन किया और विभिन्न वर्गों तथा अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा की आवश्यकता पर बल दिया।
आरंभ में ही कंजर्वेटिव और लिबरल दलों के प्रतिनिधियों और भारतीय प्रतिनिधियों में मौलिक मतभेद स्पष्ट हो गया। भारतीय वक्ता भारत के लिए एक संघीय व्यवस्था चाहते थे जिसमें भारतीयों को अधिकार सौंप दिए जाएँ। इंग्लैंड के प्रतिनिधि भारत में डोमिनियन स्टेट्स लागू करने के पक्ष में नहीं थे।
सम्मेलन के कार्य को पूरा करने के लिए विभिन्न उपसमितियाँ बनाई गईं जिनमें विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श आरंभ हुआ। अल्पसंख्यकों संबंधी उपसमिति को छोड़कर शेष समितियों का कार्य सुचारु रूप से चलता रहा। इस समिति में अंबेडकर ने अनुसूचित जातियों के लिए पृथक निर्वाचन की माँग की।
यह संभव था कि मुसलमानों के उचित अधिकारों की माँग की समस्या हल हो जाती लेकिन मुसलमानों में दो विचारधाराएँ समान रूप से प्रभावशाली थीं। सांप्रदायिक पृथक निर्वाचन और संयुक्त निर्वाचन प्रणाली, जनसंख्या के अनुपात तथा अधिप्रतिनिधित्व की माँग। बंगाल व पंजाब के नेता जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व चाहते थे लेकिन शेष क्षेत्रों में अधिप्रतिनिधित्व की बात अधिक प्रभावशाली थी। इसलिए कोई सहमति न हो सकी।
19 जनवरी 1931 ई. को पहला अधिवेशन समाप्त हुआ। इस अधिवेशन की समाप्ति पर रेम्जे मैकडोनल्ड ने इंग्लैंड सरकार की नीति संबंधी एक घोषणा की जिसके अन्तर्गत निम्नलिखित तथ्यों पर विशेष ध्यान दिया गया
●प्रांतों में पूर्ण उत्तरदायी प्रशासन लागू किया जाएगा और संघीय तथा प्रांतीय सरकारों का कार्यक्षेत्र स्पष्ट कर दिया जाएगा।
●सांप्रदायिक समस्या का निवारण विभिन्न संप्रदायों पर निर्भर करेगा।
●भारतीय प्रशासन का उत्तरदायित्व विधान सभाओं को दिया जाएगा। लेकिन अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा के लिए उचित व्यवस्था की जाएगी।
●एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना की जाए।
●प्रतिरक्षा और विदेशी विभागों तथा संकटकालीन अधिकारों को छोड़कर शेष क्षेत्रों में केंद्र में कार्यकारिणी का विधानसभा के प्रति उत्तरदायित्व स्थापित करने का प्रयत्न किया जाएगा।
प्रथम अधिवेशन की समाप्ति पर मैकडोनल्ड की इस घोषणा से कांग्रेस कमेटी बहुत असंतुष्ट हुई लेकिन थोड़े ही दिनों पश्चात गांधी-इरविन बातचीत आरंभ हो गई जिसका परिणाम 5 मार्च 1931 ई. को गांधी-इरविन समझौता हुआ।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन|Second round table conference
(7 सितंबर 1931 से 1 दिसंबर 1931)
प्रथम सम्मेलन के समाप्त तथा द्वितीय सम्मेलन के शुरू होने में भारतीय राजनीति में प्रमुख रूप से बदलाव हुए। भारत में इरविन के स्थान पर विलिंगडन गवर्नर जनरल बन गया और इंग्लैंड में लेबर मंत्रिमंडल के स्थान पर सर्वदलीय मंत्रिमंडल बना जिसमें कंजर्वेटिव दल का बहुमत था।
यह अधिवेशन 7 सितंबर 1931 ई. को आरंभ हो गया। यद्यपि गांधी जी 12 सितंबर को लंदन पहुँच सके। दूसरे अधिवेशन में गांधी जी का व्यक्तित्त्व अत्यधिक प्रभावशाली रहा। अन्य राजनीतिक नेताओं की अपेक्षा उनका आग्रह प्रेम और सदभावना पर था। वह इंग्लैंड और भारत के परस्पर संबंध समानता के आधार पर चाहते थे।
अधिवेशन के समक्ष मुख्य समस्या संघीय ढाँचे और अलपसंख्यकों के हितों की रक्षा की व्यवस्था थी। दोनों ही विषयों से संबंधित समितियों में गांधीजी थे। गांधीजी ने कांग्रेस के राष्ट्रीय होने, भारत में पूर्ण रूप से उत्तरदायी सरकार की स्थापना की आवश्यकता और गवर्नर जनरल के विशेषाधिकारों की आवश्यकता पर बल दिया। लेकिन इन बातों का व्यावहारिक निर्णयों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
अल्पसंख्यकों के हितों के प्रश्न पर सबसे अधिक वाद-विवाद हुआ। विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों ने आपसी विचार-विमर्श से एक योजना तैयार की जिसे गांधीजी ने स्वीकार करने से मना कर दिया। डॉ. अंबेडकर ने गांधीजी के समक्ष यह प्रस्ताव भी रखा था कि अनुसूचित तथा दलित वर्गों के लिए कुछ स्थान आरक्षित कर दिए जाएँ और संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों द्वारा उनका चुनाव हो। गांधीजी ने इसे अस्वीकार कर दिया।
मैकडोनल्ड ने यह भी कहा कि अल्पसंख्यकों द्वारा किया गया समझौता साढ़े ग्यारह करोड़ जनसंख्या द्वारा स्वीकृत था। गांधीजी ने इसका प्रतिकार किया और कांग्रेस को 85 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधि बताया। उन्होंने यह बात कही कि यदि भारतीय प्रतिनिधि आपस में सांप्रदायिक समस्या का हल नहीं कर सकते तो उन्हें अंग्रेज सरकार पर इसका निर्णय छोड़ देना चाहिए। अधिकांश वर्गों ने मैकडोनल्ड के निर्णय के प्रति आस्था प्रकट की। गांधीजी ने भी केवल मुसलमानों और सिक्खों के लिए मैकडोनल्ड की मध्यस्थता स्वीकार की।
सांप्रदायिक समस्या के जटिल होने का मूल कारण अंग्रेज सरकार की वह नीति थी जिसके अनुसार इस समस्या के हल को संवैधानिक प्रगति के लिए आवश्यक बताया गया। दूसरा गोलमेज सम्मेलन कोई भी समस्या हल करने में असफल रहा।
इंग्लैंड में कंजर्वेटिव दल के सत्तारूढ़ हो जाने के पश्चात भारतीय संवैधानिक प्रगति के प्रति दृष्टिकोण ही बदल चुका था। गांधीजी की असफलता भी स्पष्ट ही थी। वह जिस स्तर पर सम्मेलन में बातचीत करना चाहते थे वह आदर्श, भ्रातृत्व, प्रेम और सद्भावना पर आधारित था। सुलझे हुए राजनीतिज्ञों को यह बात कम समझ में आती थी।
दूसरे अधिवेशन की असफलता के पश्चात गोलमेज सम्मेलन प्रायः असफल हो गया। यद्यपि एक तीसरा अधिवेशन (17 नवंबर से 24 दिसंबर 1932 ई.) भी हुआ लेकिन उसका कोई महत्त्व नहीं था। इंग्लैंड की कंजर्वेटिव सरकार और भारत में विलिंगडन का अत्याचार और आतंक के आधार पर प्रशासन चलाने की नीति से वह वातावरण समाप्त हो गया जो 1929-30 ई. में था जब लेबर दल और इरविन भारतीय स्थिति में समझौते के आधार पर परिवर्तन चाहते थे।
Badiya he
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