इतिहास तीन शब्दों इति+ह+आस् से मिलकर बना है जिसका अर्थ है--"ऐसा निश्चित रूप से हुआ है। इस प्रकार इतिहास अतीत को जानने का एक साधन है।
किसी राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता को उसके अतीत के अध्ययन से ही समझ सकते हैं। यहाँ संस्कृति के अन्तर्गत मानव के समस्त क्रिया कलाप आते हैं जबकि सभ्यता के अन्तर्गत भौतिक पहलुओं पर विशेष जोर दिया जाता है।
प्राचीन भारत के विषय में मुख्यतः चार स्रोतों से जानकारी प्राप्त होती है।
प्राचीन भारतीय इतिहास के धार्मिक स्रोत
प्राचीन काल से ही भारत धर्म प्रधान देश रहा है। अतः यहाँ मुख्य रूप से तीन वैदिक, जैन व बौद्ध धार्मिक धाराएँ प्रवाहित हुई। वेदों में ऋग्वेद सबसे प्राचीन वेद है इससे आर्यो की राजनीतिक प्रणाली एवं इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
दाशराज्ञ युद्ध का वर्णन ऋग्वेद में मिलता है जो परुषणी (रावी) नदी के तट पर सुदास तथा दस जनों के बीच लड़ा गया था। जिसने सुदास विजयी रहा।
सामवेद से भारतीय संगीत के इतिहास की जानकारी मिलती है। जबकि यजुर्वेद यज्ञों एवं कर्मकाण्डों तथा अथर्ववेद से चिकित्सा पद्धति व तन्त्र मंत्र की जानकारी मिलती है।
वेदों के अलावा ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों को भी वैदिक साहित्य में शामिल किया गया है। इन्हें उत्तर वैदिक साहित्य कहा जाता है।
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ब्राह्मण ग्रंथों में वैदिक कर्मकाण्डों का विस्तार पूर्वक वर्णन मिलता है। जबकि आरण्यक ग्रन्थों और उपनिषदों में विभिन्न आध्यात्मिक और दार्शनिक समस्याओं के बारे में चर्चायें की गयी है।
भारत का पौराणिक साहित्य बड़ा विशाल है। 18 मुख्य पुराण तथा 18 उपपुराण है। जिनमें भारतीय राजवंशों का वर्णन मिलता है।
स्मृतियों को धर्म-शास्त्र कहा जाता है। इनमें मनुष्य के क्रिया कलापों के बारे में जानकारी मिलती है। मनु स्मृति से उस समय के भारत के बारे में राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक जानकारी मिलती है।
रामायण तथा महाभारत भारत के दो सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य हैं। इन महाकाव्यों का रचनाकाल 4 ई. पू. से 4 ई. माना जाता है। इन महाकाव्यों से उस समय की धार्मिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है।
भारतीय इतिहास के साहित्यिक स्रोत
जैन व बौद्ध साहित्य प्राकृत व पाली भाषाओं में लिखे गये है। अधिकांश प्रारम्भिक जैन साहित्य प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से जैन साहित्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जैन साहित्य को "आगम" भी कहा जाता है।
पाली भाषा को प्राकृत भाषा का एक रूप समझा जा सकता है। जिसका चलन मगध में था। अधिकांश प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य इसी भाषा में लिखे गये हैं।
बौद्ध साहित्य से प्राप्त जानकारी
बौद्ध साहित्य को "त्रिपिटक" कहा जाता है। इनका संकलन विभिन्न बौद्ध संगीतियों में किया गया था। वुलर तथा रीज डेविडज ने पिटक का शाब्दिक अर्थ "टोकरी" बताया था। त्रिपिटक के अन्तर्गत सुत्तपिटक, विनय पिटक तथा अभिधम्म पिटक आते हैं।
◆सुत्तपिटक
सुत्त का शाब्दिक अर्थ होता है--धर्मोपदेश। इसमें बुद्ध के धार्मिक विचारों तथा उपदेशों का संग्रह किया गया है। यह त्रिपिटकों में सबसे बड़ा और श्रेष्ठ है। यह पिटक पाँच निकायों में विभाजित किया गया है।
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●दीर्घ निकाय
यह निकाय गद्य तथा पद्य दोनों में रचित है। इस निकाय में बौद्ध के सिद्धान्तों का समर्थन तथा अन्य धर्मों के सिद्धान्तों का खण्डन किया गया है। "महापरिनिब्बानसुत्त" इस निकाय का प्रमुख सूक्त है। इसमें महात्मा बुद्ध के अन्तिम क्षणों का वर्णन किया गया है।
●मज्झिम निकाय
इस निकाय में महात्मा बुद्ध को कही साधारण पुरुष के रूप में तो कही दैवीय शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है।
●संयुक्त निकाय
इस निकाय में संयुक्तो का संकलन किया गया है।
●अंगुत्तर निकाय
इस निकाय में महात्मा बुद्ध द्वारा भिक्षुओं को उपदेश में कही जाने वाली बातों का वर्णन है।
●खुद्दक निकाय
यह निकाय भाषा, विषय एवं शैली की दृष्टि से सभी निकायों से भिन्न है। खुद्दक निकाय का एक प्रमुख ग्रन्थ है-जातक कथाएँ। जातक कथाओं में बुद्ध के पूर्व जन्म से सम्बन्धित लगभग 550 कहानियों का विवरण है।
◆विनय पिटक
इस पिटक में मठ निवासियों के अनुशासन सम्बन्धी नियम दिये गये है। इस पिटक को तीन भागों में विभक्त किया गया है।
●पातिभोक्ख (प्रतिमोक्ष)
इसमें अनुशासन सम्बन्धी नियमों तथा उनके उल्लंघनों पर किये जाने वाले प्रायश्चितों का संकलन है।
●सुत्त विभंग
सुत्त विभंग का शाब्दिक अर्थ होता है-"सूत्रों पर टीका"। इसे दो भागों में विभाजित किया गया है। महाविभंग तथा भिखुनी विभंग। महाविभंग में बौद्ध भिक्षुओं के लिए तथा भिखुनी विभंग में बौद्ध भिक्षुणियों के लिए नियमों का उल्लेख किया गया है।
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●खन्धक
खन्धक में मठ के निवासियों के जीवन के सन्दर्भ में विधि निषेधों की विस्तृत व्याख्या की गई है।
◆अभिधम्म पिटक
इसमें बौद्ध मतों की दार्शनिक व्याख्या की गयी है। इस पिटक का संकलन अशोक के शासन काल में सम्पन्न तृतीय बौद्ध संगीति में मोग्गलिपुत्त तिस्स ने किया था।
त्रिपिटकों के अतिरिक्त कुछ अन्य महत्वपूर्ण बौद्ध ग्रन्थ भी हैं। जैसे- मिलिंदपन्हों, दीपवंश, महावंश आदि।
अन्य साहित्यिक स्रोत
●अर्थशास्त्र
आचार्य चाणक्य द्वारा रचित इस कृति को भारत का पहला राजनीतिक ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ में मौर्य कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक स्थिति की जानकारी मिलती है।
●मुद्राराक्षस
विशाखदत्त द्वारा रचित इस ग्रंथ में चंद्रगुप्त मौर्य, चाणक्य, नन्द वंश के पतन तथा मौर्य वंश की स्थापना के इतिहास की जानकारी मिलती है।
●गार्गी संहिता
इस पुस्तक में यूनानी आक्रमण का उल्लेख मिलता है।
●मालविकाग्निमित्रम्
कालिदास द्वारा रचित इस संस्कृत ग्रंथ से पुष्यमित्र शुंग तथा उसके पुत्र अग्निमित्र के समय के राजनीतिक घटना क्रम तथा शुंग एवं यवन संघर्ष की जानकारी प्राप्त होती है।
●हर्षचरित
हर्ष के राजकवि बाणभट्ट द्वारा लिखित इस पुस्तक में हर्ष के जीवन तथा हर्ष के समय के भारत के इतिहास पर प्रकाश डाला गया है।
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●बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र
इसकी रचना वृहस्पति ने की। इसका रचनाकाल 900 से 1000 ई. के मध्य माना जाता है। इस ग्रंथ में राजकीय कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है।
●स्वप्रवालवदत्तम्
महाकवि भास द्वारा रचित इस कृति में वत्सराज उदयन तथा चण्डप्रद्योत के सम्बन्धों का विवरण मिलता है।
●मृच्छकटिकम
शूद्रक द्वारा रचित इस नाटक से गुप्त कालीन सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी मिलती है।
●राजतरंगिणी
इसकी रचना कल्हण द्वारा की गई। इसमें कश्मीर के इतिहास का वर्णन मिलता है।
●विक्रमांकदेवचरित
11वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इसकी रचना बिल्हण ने की। इसमें चालुक्य राजवंश की जानकारी मिलती है।
●कुमारपालचारित
हेमचंद्र द्वारा रचित इस पुस्तक में चालुक्य वंशीय शासकों की विस्तृत जानकारी मिलती है।
●मत्तविलास प्रहसन
पल्लव नरेश महेन्द्र विक्रम द्वारा 7वीं शताब्दी में रचित इस पुस्तक में तत्कालीन धार्मिक तथा सामाजिक जीवन के बारे में विवरण मिलता है।
●गौड़वहो
वाकपतिराज द्वारा प्राकृत भाषा में रचित इस ग्रंथ में कन्नौज नरेश यशोवर्मा की विजयों का उल्लेख मिलता है।
प्राचीन इतिहास के विदेशी स्रोत
प्राचीन भारतीय इतिहास की बहुत सी जानकारी विदेशियों के विवरण से प्राप्त होती है। इन विदेशियों में यूनानी, चीनी, अरबी व फारसी लेखकों का विवरण महत्वपूर्ण है।
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◆यूनानी लेखक-- यूनानी लेखकों को तीन कालों में बांटा जा सकता है।
●सिकन्दर के पूर्व के यूनानी लेखक
यूनान के प्राचीनतम लेखकों में टेसियस तथा हेरोडोटस प्रसिद्ध हैं। टेसियस यूनान का राजवैद्य था तथा उसने यूनानी अधिकारियों द्वारा ही भारत के विषय में जानकारी प्राप्त की थी। उसका विवरण आश्चर्यजनक कहानियों से परिपूर्ण होने के कारण अविश्वसनीय है। हेरोडोटस जिसे इतिहास का पिता कहा जाता है। 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व "हिस्टोरिका" नामक पुस्तक की रचना की। जिसमें भारत और फारस के सम्बन्धों का वर्णन किया गया है।
●सिकन्दर के समकालीन लेखक
सिकन्दर के साथ आने वाले लेखकों में निर्याकस, आनेसिक्रिट्स तथा अरिस्टोबुलस के विवरण अपेक्षाकृत अधिक प्रमाणित और विश्वसनीय हैं।
●सिकन्दर के बाद के लेखक
सिकन्दर के पश्चात् के लेखकों में मेगस्थनीज, डायमेकस और डायनोसियस का नाम उल्लेखनीय है। जो यूनानी शासकों द्वारा मौर्य दरबार में भेजे गए थे।
इनमें मेगस्थनीज सर्वाधिक प्रसिद्ध है। वह यूनानी राजा सेल्युकस निकेटर का राजदूत था। उसने चन्द्रगुप्त के दरबार में लगभग 14 वर्ष बिताये। तथा "इंडिका" नामक पुस्तक की रचना की। जिसमें तत्कालीन मौर्य युगीन समाज एवं संस्कृति का वर्णन मिलता है।
डायमेकस सीरियन नरेश अन्तियोकस का राजदूत था। जो बिन्दुसार के राज दरबार में आया था। तथा डायनोसियस मिस्त्र नरेश टॉलमी फिलाडेल्फस का राजदूत था। जो अशोक के राज दरबार में आया था।
इसके अतिरिक्त एक अज्ञात यूनानी लेखक द्वारा 80 ई. के आस पास लिखित पेरीप्लस ऑफ द एरीथ्रियन सी नामक पुस्तक से भारतीय तटों के बारे में बहुमूल्य सूचना प्राप्त होती है। टॉलमी ने भारत का भूगोल लिखी तथा प्लिनी ने "नेचुरल हिस्टोरिका" नामक पुस्तक लिखी। इससे भारतीय पशुओं, पेड़पौधों, खनिज पदार्थों आदि का ज्ञान प्राप्त होता है।
◆चीनी लेखक
चीनी यात्री समय समय पर भारत आते रहे थे। वे यहाँ बौद्ध तीर्थों के दर्शन करने या बौद्ध धर्म का अध्ययन करने आये थे। इसलिए उनके विवरणों का झुकाव कुछ हद तक बौद्ध धर्म की ओर है। चीनी यात्रियों में फाह्यान, सुंगयुन, ह्वेनसांग तथा इत्संग महत्वपूर्ण है।
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फाह्यान गुप्त नरेश चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय के शासनकाल (375 से 415) में भारत आया था। उसने अपने विवरण में मध्य देश की जनता को सुखी एवं समृद्ध बताया तथा तत्कालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डाला।
सुंगयुन 518 ई. में भारत आया और तीन वर्ष की यात्रा में बौद्ध ग्रंथों की प्रतियाँ एकत्रित की।
चीनी यात्रियों में सर्वाधिक महत्व ह्वेनसांग अथवा युवान च्वांग का है। जो हर्ष के शासनकाल में 629 में भारत आया था। वह भारत में करीब 16 वर्षो तक रहा। उसकी भारत यात्रा का वृतान्त "सी-यू-की" नाम से प्रसिद्ध है। जिसमें 138 देशों का विवरण प्राप्त होता है। इससे हर्ष कालीन सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। व्ही-ली, ह्वेनसांग का मित्र था उसने ह्वेनसांग की जीवनी लिखी।
◆अरबी लेखक
पूर्व मध्यकालीन भारत के समाज एवं संस्कृति के विषय में हमें अरब व्यापारियों और लेखकों से विवरण प्राप्त होता है। इनमें अलबरूनी, सुलेमान व अलमसूदी मुख्य हैं।
●अलबरूनी
इसे पहले अबूरेहान नाम से जाना जाता था। इसका जन्म 973 ई. में ख्वारिज्म(खीवा) में हुआ था। उसकी विद्वता से प्रभावित होकर ख्वारिज्म के ममूनी शासक ने उसे अपना मंत्री नियुक्त कर दिया। 1017 ई. में महमूद गजनवी ने ख्वारिज्म को जीत लिया। तथा अलबरूनी को बन्दी बना लिया। किन्तु उसकी विद्वता से प्रभावित होकर महमूद गजनवी ने उसे राज ज्योतिषी के पद पर नियुक्त कर दिया। बाद में महमूद गजनवी के साथ भारत आया। इसने अपनी किताब तहकीक-ए-हिन्द में राजपूत कालीन समाज, धर्म, रीति रिवाज आदि का वर्णन किया है।
9वीं शताब्दी में भारत आने वाले अरबी यात्री सुलेमान के वर्णन में प्रतिहार तथा पाल शासकों के बारे में जानकारी मिलती है। जबकि अलमसूदी से राष्ट्रकूट शासकों के विषय में जानकारी मिलती है।
भारतीय इतिहास के पुरातत्व सम्बन्धी स्रोत
पुरातात्विक साक्ष्य के अन्तर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियाँ व चित्रकला आदि आते हैं।
●अभिलेख
इतिहास लेखन का विश्वसनीय एवं महत्व पूर्ण स्रोत अभिलेख हैं। अभिलेखों के अध्ययन को "एपीग्राफी या अभिलेखशास्त्र" कहा जाता है। अधिकांश अभिलेख स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं, पात्रों, मूर्तियों तथा गुहाओं आदि पर खुदे हुए मिलते हैं।
सबसे प्राचीन अभिलेख मध्य एशिया के "बोधज कोई" नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। लिखने की सबसे प्राचीन प्रणाली हड़प्पा की मुद्राओं पर पायी जाती है। लेकिन उसे पड़ने में अभी तक सफलता नहीं मिली है। इसलिये अशोक के अभिलेखों की लेखन प्रणाली को सबसे प्राचीन माना जाता है।
●सिक्के (मुद्रायें)
सिक्कों के अध्ययन को न्यूमिसमेटिक्स कहा जाता है। भारत के प्राचीनतम सिक्कों को जो 5वीं अथवा 6वीं ईसापूर्व के हैं, पंचमार्क या आहत सिक्के कहा जाता है। ये अधिकांश चाँदी के हैं परन्तु कुछ तांबे के भी आहत सिक्के प्राप्त हुए हैं। इन सिक्कों पर कोई लेख नहीं होता है केवल चिन्ह होता है। जिसे ठप्पा मारकर अंकित किया जाता था। इसीलिए इन्हें आहत सिक्के कहा जाता है। साहित्य में इन सिक्कों को कार्षापण कहा गया है। पहली बार भारत में लिखित स्वर्ण सिक्के चलाने का श्रेय हिन्द यवन शासकों को जाता है।
●पुरातत्वीय स्मारक
इसके अन्तर्गत प्राचीन इमारतें, मन्दिर, मूर्तियां आदि आते हैं। इनसे विभिन्न युगों की सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक परिस्थितियों का बोध होता है। प्राग-इतिहास पर किये गए अनुसंधानों से पता चलता है कि भारत में शैल चित्रकला 12 हजार वर्षों से भी अधिक पुरानी है।
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