उत्तर वैदिक कालीन धर्म की प्रमुख विशेषता यज्ञों की जटिलता एवं कर्मकाण्डों की दुरूहता थी। यज्ञों में शुद्ध मंत्रोच्चारण पर बल दिया गया। इससे विशेष रूप से दक्षता प्राप्त पुरोहितों का उदय हुआ। प्रत्येक वेद के अलग पुरोहित हो गये। इन पुरोहितों के सहायक पुरोहित भी होते थे। मुख्यतः पुरोहित चार प्रकार के होते थे।
1-होता या होतृ
ऋग्वेद के मंत्रों का उच्चारण करने वाले पुरोहित को "होता" कहा जाता था। इसके सहायक पुरोहित मन्त्रावरण, अच्छावाक व ग्रावस्तुत थे। इन पुरोहितों ने "त्रिक संहिता" का पुनरसृजन किया।
2-उद्गाता
सामवेद का गायन करने वाले पुरोहित को "उद्गाता" कहा जाता था। इसके सहायक पुरोहित प्रतिहोता, प्रस्तोता, सुब्रह्मण्यम थे।
3-अध्वर्यु
यजुर्वेद के मंत्रों का उच्चारण करने वाले पुरोहित को "अध्वर्यु" कहा जाता था। इसके सहायक पुरोहित प्रतिष्ठा, उन्नोता, नेष्ठा थे।
4-ब्रह्म
अथवर्वेद के नियमों के अनुसार यज्ञ का निरीक्षण करने वाले पुरोहित को "ब्रह्म" कहा जाता था। ये पुरोहित यज्ञों का निरीक्षण करते थे यज्ञों के सही विधि विधान तथा मंत्रों के शुद्ध उच्चारण पर विशेष जोर देते थे। इसके सहायक पुरोहित ब्रह्मणाच्छंसी, अगनीध आदि थे।
उत्तर वैदिक कालीन आर्यों के धार्मिक जीवन में मुख्यतः तीन परिवर्तन परिलक्षित होते हैं।
1-देवताओं की महत्ता में परिवर्तन
उत्तर वैदिक काल में ऋग्वैदिक काल के प्रमुख देवता इन्द्र, अग्नि एवं वरुण महत्वहीन हो गये। इस काल में सृजन के देवता प्रजापति को सर्वोच्च स्थान मिला।
"रुद्र" जिन्हें ऋग्वैदिक काल में पशुओं का देवता माना जाता था, इनकी पूजा उत्तर वैदिक काल में शिव के रूप में होने लगी।
ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख है कि सभी देवताओं के उग्र रूप से रुद्र की उत्पत्ति हुई। वाजसनेयी संहिता में रुद्र को गिरीश, गिरत्रि और कृत्तिवाश कहा गया है।
विष्णु को सर्व संरक्षक के रूप में पूजा जाता था। इस काल में वरुण मात्र जल के देवता माने जाने लगे जबकि पूषन अब शूद्रों के देवता हो गये।
उत्तर वैदिक काल से ही मूर्ति पूजा के प्रारम्भ का आभास मिलने लगता है, किन्तु मूर्तिपूजा का प्रचलन गुप्त काल से माना जाता है।
2-आराधना की रीति में परिवर्तन
उत्तर वैदिक काल में आराधना की रीति में बड़ा अन्तर आया स्तुति पाठ पहले की तरह चलते रहे, परन्तु यज्ञ करना अब कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया था। यज्ञ के सार्वजनिक तथा घरेलू दोनों रूप प्रचलित हुए।
यज्ञ में बड़े पैमाने पर पशु बलि दी जाती थी जिससे पशुधन ह्रास होता गया। अतिथि "गोध्न अर्थात गोहन्ता" कहलाते थे। क्योंकि उन्हें गोमांस खिलाया जाता था। यज्ञ की दक्षिणा में गाय, सोना, कपड़े तथा घोड़े दिये जाते थे। किन्तु यज्ञ की दक्षिणा में भूमि देने का प्रचलन उत्तर वैदिक काल में नहीं हुआ था।
3-धार्मिक उद्देश्यों में परिवर्तन
शतपथ ब्राह्मण में पहली बार पुनर्जन्म के सिद्धान्त का उल्लेख मिलता है। अब आर्यों के लिए लौकिक उद्देश्यों के साथ पारलौकिक उद्देश्य भी महत्वपूर्ण हो गये थे।
उपनिषदीय प्रतिक्रिया
वैदिक काल के अन्तिम दौर में यज्ञों, कर्मकाण्डों एवं पुरोहितों के प्रभुत्व के विरुद्ध प्रबल प्रतिक्रिया पंचालों और विदेह राज्यों में हुई, जहाँ 600 ईसा पूर्व के आसपास उपनिषदों का संकलन हुआ।
उपनिषदों का मुख्य विषय कर्मकाण्ड और पशुबलि की निन्दा तथा आत्मा और परमात्मा में एकत्व स्थापित करना था।
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उपनिषदीय विचारकों ने यज्ञादि अनुष्ठानों को एक ऐसी कमजोर नौका बताया, जिसके द्वारा इस जीवन रूपी भव सागर को पार नहीं किया जा सकता। उपनिषदों में मोक्ष की प्राप्ति के लिए ज्ञान मार्ग बताया गया है।
प्रमुख दर्शन एवं उनके प्रवर्तक
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