उत्तर वैदिक काल का सामाजिक जीवन

उत्तर वैदिक काल में छोटे छोटे ग्राम बड़े ग्रामों में एवं बड़े ग्राम नगरों में विकसित होने लगे थे। जिनका उल्लेख "जैमिनीय उपनिषद" एवं "तैत्तिरीय ब्राह्मण" में महाग्रामों एवं नागरिन के रूप में मिलता है।

इस समय गृह निर्माण कच्ची एवं पक्की ईंटों, मिट्टी, बाँस एवं लकड़ी से किया जाता था। घरों में अग्निशाला, पशुशाला एवं अतिथिशाला की भी व्यवस्था होती थी।

 संयुक्त एवं पितृसत्तात्मक परिवार की प्रथा उत्तर वैदिक काल में भी विद्यमान रही। कुल शब्द का उल्लेख सर्वप्रथम उत्तर वैदिक काल में मिलता है।


उत्तर वैदिक काल की सामाजिक व्यवस्था


भारतीय सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्णाश्रम व्यवस्था है। यद्यपि वर्ण व्यवस्था की नींव ऋग्वैदिक काल में पड़ चुकी थी, किन्तु यह स्थापित उत्तर वैदिक काल में हुई।

भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था

उत्तर वैदिक काल का समाज स्पष्ट रूप से चार वर्णों में विभाजित हो चुका था। ये वर्ण थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। इस काल में वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म पर आधारित न रहकर जाति पर आधारित हो गया। किन्तु इस काल में जाति प्रथा अधिक कठोर नहीं थी। अस्पृश्यता की भावना का उदय नहीं हुआ था।
उत्तर वैदिक काल में यज्ञ अनुष्ठान बढ़ जाने के कारण ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई। ऋग्वैदिक काल में 7 पुरोहित होते थे जबकि उत्तर वैदिक काल में इनकी संख्या बढ़कर 17 तक पहुँच गई।
ब्राह्मण लोग अपने यजमानों के लिए तथा अपने लिए धार्मिक अनुष्ठान तथा यज्ञ करते थे। वे कृषि से जुड़े पर्वों में यजमानों का प्रतिनिधित्व करते थे, युद्ध में राजा की जीत के लिए आराधना करते थे।

ऐतरेय ब्राह्मण से पता चलता है कि उत्तर वैदिक काल में क्षत्रियों की स्थिति ब्राह्मणों से श्रेष्ठ थी। ऐतरेय ब्राह्मण में ब्राह्मणों को अदायी, सोमपायी एवं स्वेच्छा से भ्रमणशील कहा गया है।

वैश्य वर्ण की उत्पत्ति विश शब्द से हुई है। समाज का यही वर्ग कर देता था। इसलिए इसके नाम अन्यस्यबलिकृत एवं अन्यस्यद्य पड़ गये। वैश्यों की सबसे बड़ी आकांक्षा ग्रामणी बनना था।

शूद्रों की दशा समाज में निम्न थी। उनका कार्य समाज के अन्य वर्गों की सेवा करना था। शूद्रों का उपनयन संस्कार बन्द कर दिया गया। इससे उनकी शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ा।

इस काल के ग्रंथों में शूद्रों को अन्यस्यप्रेष्य (तीनों वर्णों का सेवक), यथाकामवध्य (इच्छानुसार वध किया जा सकने वाला), कामोत्थाप्य (मनमाने ढंग से उखाड़ फेंका जाने वाला) कहा गया है। जो समाज में उसकी गिरती दशा का द्योतक है।

तैत्तिरीय ब्राह्मण के उल्लेख के आधार पर ब्राह्मण सूत का, क्षत्रिय सन का और वैश्य ऊन का यज्ञोपवीत धारण करते थे। तथा उपनयन संस्कार ब्राह्मणों का बसन्त ऋतु में, क्षत्रियों का ग्रीष्म ऋतु में एवं वैश्यों का शीत ऋतु में होता था।

इसी काल में सर्वप्रथम "गोत्र व्यवस्था" प्रचलन में आयी। गोत्र जिसका शाब्दिक अर्थ होता है "गोष्ठ" अर्थात वह स्थान जहाँ समूचे कुल का गोधन एक साथ रखा जाता था। परन्तु गोत्र का यह अर्थ कुछ समय पश्चात एक मूल पुरुष के वंशज से हो गया। इस प्रकार एक ही गोत्र के लोगों के परस्पर विवाह पर प्रतिबन्ध लग गया।

उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा


ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आयी। इसका उल्लेख उस समय के साहित्य में भी मिलता है।
ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को ही समस्त दुखों का कारण माना गया है। मैत्रायणी संहिता में स्त्रियों को जुआ और सुरा के साथ तीन प्रमुख बुराइयों में गिनाया गया है।

वृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद जहाँ एक ओर यह दर्शाता है कि समाज में कुछ स्त्रियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकती थी। वहीं उनकी हीन स्थिति को भी सूचित करता है। क्योंकि एक वाद-विवाद के दौरान याज्ञवल्क्य ने गार्गी से कहा कि अधिक बहस न करो अन्यथा तुम्हारा सिर तोड़ दिया जायेगा।

उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों का उपनयन संस्कार बन्द हो गया, उन्हें सभा और विदथ में भाग लेने से रोक दिया गया। उनका विवाह कम उम्र में भी होने लगा था। नियोग प्रथा इस काल में भी प्रचलित रही, जबकि सती प्रथा और पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। इस काल में विदुषी स्त्रियों का भी उल्लेख मिलता है। जैसे-गार्गी, सुभला, वेदवती, काशकृत्सनी, मैत्रेयी व कात्यायनी आदि।

उत्तर वैदिक समाज की आश्रम व्यवस्था


आश्रमों का विधान मानव जीवन को सुव्यवस्थित एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए किया गया। आश्रम शब्द की उत्पत्ति "श्रम" धातु से हुई है। जिसका शाब्दिक अर्थ है--परिश्रम या प्रयास करना।

सर्वप्रथम उत्तर वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था स्थापित हुई। उत्तर वैदिक ग्रंथों में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख मिलता है। चतुर्थ आश्रम इस काल में स्थापित नहीं हुआ था। सर्वप्रथम "जाबालोपनिषद" में चारों आश्रमों का उल्लेख मिलता है- ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम व सन्यास।

छांदोग्य उपनिषद में केवल प्रथम तीन आश्रमों की जानकारी प्राप्त होती है। आश्रमों के विषय में विधिवत जानकारी धर्मसूत्रों से प्राप्त होती है। इन सभी आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को सर्वोच्च माना गया है। आश्रम व्यवस्था सभी वर्णों में प्रचलित थी।

1-ब्रह्मचर्य आश्रम (25 वर्ष तक)

इस आश्रम में व्यक्ति ज्ञान तथा शिक्षा प्राप्त करता था। ब्रह्मचर्य आश्रम विद्याध्ययन काल था जिसका प्रारम्भ उपनयन संस्कार से होता था। मुख्यतः 25 वर्ष की उम्र तक बालक शिक्षा प्राप्त करता था।

जो ब्रह्मचारी जीवन पर्यन्त शिक्षा प्राप्त करते थे उन्हें नैष्ठिक कहा जाता था। निश्चित समय तक शिक्षा प्राप्त करने वाले ब्रह्मचारी को "उपकुर्वाण" कहा जाता था। तथा वे कन्याएं जो आश्रम में रहकर जीवन भर शिक्षा प्राप्त करती थीं, उन्हें ब्रह्मवादिनी कहा जाता था। जबकि विवाह पूर्व तक शिक्षा प्राप्त करने वाली कन्याएं "साद्योवधु" कहलाती थीं।

2-गृहस्थ आश्रम (25 वर्ष से 50 वर्ष)

गृहस्थ आश्रम को सभी आश्रमों में श्रेष्ठ माना गया है। यह समाज के सभी वर्णों में मान्य था। गृहस्थ आश्रम में ही मनुष्य तीन ऋणों से मुक्ति पाता था। इसी आश्रम में पंच महायज्ञ तथा त्रिवर्ग का विधान था।
त्रि-ऋण-- एक मनुष्य को तीन ऋणों से मुक्त होना आवश्यक था।
१-ऋषि ऋण-- वैदिक ग्रंथों का अध्ययन करना या सुनना।
२-पितृ ऋण-- पुत्र की उत्पत्ति करना।
३-देव ऋण-- यज्ञ आदि करवाना।

पंच महायज्ञ-- गृहस्थ आश्रम में ही पंच महायज्ञ सम्पादित किये जाते थे।

१-ऋषि यज्ञ
२-देव यज्ञ
३-पितृ यज्ञ
४-भूत यज्ञ
५-नृ-यज्ञ

त्रिवर्ग--धर्म, अर्थ एवं काम का ज्ञान

3-वानप्रस्थ (50 वर्ष से 75 वर्ष)
वानप्रस्थ भौतिक जीवन से मुक्ति का साधन था।

4-सन्यास (75 वर्ष से 100 वर्ष तक)

सन्यास का अर्थ होता है--पूर्ण त्याग। इसमें मनुष्य घर का पूर्ण त्याग मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से करता था।

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