उत्तर वैदिक काल का राजनैतिक जीवन

भारतीय इतिहास के उस काल को "उत्तर वैदिक काल" कहा जाता है। जिसमें सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों एवं उपनिषदों की रचना हुई। इस काल का समय 1000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व माना जाता है।

चित्रित धूसर मृद्भांड इस काल की प्रमुख विशिष्टता थी। उत्तर वैदिक काल के लोग लोहे का प्रयोग भी करने लगे थे। उत्तर वैदिक सभ्यता का मुख्य केन्द्र "मध्यदेश" था जिसका विस्तार सरस्वती से लेकर गंगा के दोआब तक था।

उत्तर वैदिक कालीन राजनैतिक जीवन


उत्तर वैदिक काल में "राजतन्त्र" ही शासन तन्त्र का आधार था। इस काल की राजनीतिक दशा में सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन था--छोटे-छोटे जनों का आपस में मिलकर बड़े जनपदों में परिवर्तित हो जाना। इसी समय से राष्ट्र शब्द का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। इस काल में राजा के अधिकारों में ऋग्वेद काल की अपेक्षा कुछ वृद्धि हुई।
राजा की उत्पत्ति का सिद्धांत सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है। राजा को भिन्न भिन्न दिशाओं में भिन्न भिन्न नामों से पुकारा जाता था।

दिशाएं और राजा का सम्बोधन

मध्यदेश में राजा, पूर्व में सम्राट, पश्चिम में स्वराट, उत्तर में विराट तथा दक्षिण में भोज नाम से पुकारा जाता था। जो राजा चारों दिशाओं को विजित कर लेता था। उसे "एकराट" कहा जाता था।
ऐतरेय ब्राह्मण में कई प्रकार के राज्यों का भी उल्लेख मिलता है। जैसे

1-भौज्य--इस राज्य के शासक को राजा कहा जाता था।
2-महाराज्य--इस राज्य के शासक को सम्राट कहा जाता था।
3-वैराज्य--यहाँ पर कोई राजा नहीं होता था। यह राज्य गणराज्य होता था।

अथर्ववेद में कुरु राज्य की समृद्धि का चित्रण किया गया है। परीक्षित और जनमेजय यहाँ के प्रसिद्ध राजा थे। परीक्षित को मृत्युलोक का देवता कहा गया है।

इसके अलावा उपनिषदों में कई राजाओं के नामों का उल्लेख मिलता है। जैसे-कैकेय राज्य के अश्वपति, काशी राज्य के अजातशत्रु, विदेह राज्य के जनक, पांचाल राज्य के प्रवाहण जैवलि आदि। इनमें कैकेय के राजा अश्वपति दार्शनिक थे।

इस काल के उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि राजा का चुनाव प्रारम्भिक उत्तर वैदिक काल में जनता द्वारा एवं कालान्तर में प्रतिनिधियों द्वारा और अन्त राजा का पद वंशानुगत हो गया।

राजा का राज्याभिषेक "राजसूय यज्ञ" यज्ञ द्वारा सम्पन्न होता था। राजसूय यज्ञ का विस्तृत वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। राजसूय यज्ञ के समय राजा रत्नियों को हवि प्रदान करता था, उनके प्रति सम्मान प्रकट करता था तथा उनसे समर्थन की आशा करता था।

राजसूय यज्ञ सम्पन्न होने के बाद यह समझा जाता था कि राजा को दिव्य शक्ति मिल गयी है। राजसूय यज्ञ में 17 प्रकार के जलों से राजा का अभिषेक किया जाता था।

राजा की शक्ति में अभिवृद्धि के लिए "अश्वमेध यज्ञ" एवं "वाजपेय यज्ञ" का भी विधान किया गया था। अश्वमेध यज्ञ राज्य विस्तार से सम्बन्धित था। इस यज्ञ में एक घोड़ा छोड़ा जाता था। घोड़ा जिन क्षेत्रों से बेरोक गुजर जाता था उन सारे क्षेत्रों पर राजा का एक छत्र आधिपत्य माना जाता था।

वाजपेय यज्ञ एक प्रकार की रथदौड़ थी। जिसमें राजा का रथ सभी के रथ से आगे निकल जाता था। इन सभी अनुष्ठानों से प्रजा के चित्त पर राजा की बढ़ती शक्ति और महिमा की गहरी छाप पड़ती थी।

रत्निन

ये राज्य के उच्च पदाधिकारी थे जो कुलीन वर्ग से सम्बन्धित थे। इन्हें रत्निन इसलिए कहा जाता था क्योंकि ये कान में रत्न धारण करते थे। शतपथ ब्राह्मण में 12 प्रकार के रत्नियों का उल्लेख मिलता है।
1-सेनानी--यह सबसे प्रमुख रत्निन था।
2-पुरोहित--इसका दूसरा स्थान था।
3-युवराज--राजा का पुत्र
4-महिषी--पटरानी थी।
5-सूत--राजा का सारथी
6-ग्रामणी--ग्राम का मुखिया
7-क्षत्ता--प्रतिहारी या द्वारपाल
8-संग्रहीता--कोषाध्यक्ष
9-भागदुध--कर एकत्र करने वाला अधिकारी
10-अक्षवाप--द्युत-क्रीड़ा में राजा का मित्र
11-पालागल--राजा का मित्र एवं विदूषक का पूर्वज
12-गोविकर्ता--जंगल विभाग का प्रधान अधिकारी

सर्वप्रथम करों की नियमित व्यवस्था का उल्लेख उत्तर वैदिक काल में ही मिलता है। इसे बलि, शुल्क या भाग कहा जाता था। भागदुध कर का संग्रह करने वाला अधिकारी होता था तथा कोषाध्यक्ष को संग्रहीता कहा जाता था।

शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित है कि कर केवल वैश्य वर्ग पर ही लिया जाता था। कर की मात्रा 1/16 भाग थी। कर देने के कारण वैश्यों को बलीकृत कहा जाता था। कर की अदायगी अन्न एवं पशु दोनों रूप में की जाती थी।

 उत्तर वैदिक काल में राजा ही न्याय का सर्वोच्च अधिकारी होता था। ब्राह्मण को मृत्यु दण्ड नहीं दिया जा सकता था। अपराध सिद्धि के लिए जल परीक्षा तथा अग्नि परीक्षा प्रचलित थी।

इस काल में राजा कोई स्थायी सेना नहीं रखता था। युद्ध के समय कबीले के जवानों के दल भरती कर लिये जाते थे और कर्मकाण्ड के एक अनुष्ठान के अनुसार, युद्ध में विजय पाने की कामना से राजा को प्रजा के साथ एक ही थाली में भोजन करना पड़ता था। किन्तु इस काल में स्थायी सेना रखने की नींव भी पड़ने लगी थी।

 ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि कुरु नरेश सदैव 64 योद्धाओं से घिरा रहता था। जो उसके पुत्र व पौत्र होते थे। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख मिलता है कि पांचाल नरेश ने अश्वमेध यज्ञ कराये जाते समय 6033 बख्तर बंद तैयार किये थे।

 पूर्व वैदिक काल की अपेक्षा उत्तर वैदिक काल में सभा और समिति की स्थिति में थोड़ा बदलाव आया। अब इन संस्थाओं के अधिकार सीमित हो गये थे। स्त्रियों का सभा में प्रवेश वर्जित हो गया था। अथर्ववेद में सभा और समिति को राजा की दो पुत्रियां कहा गया है।

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1 Comments
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  1. श्री मान मुझे आप वैदिक पांडुलिपि के बारे में बताए
    की किस वस्तु पर लिखी गई थी और उनकी लिखावट और अभी की वैदिक लिखावट में क्या अंतर है । धन्यवाद

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