मौर्योत्तर कालीन अर्थ व्यवस्था

मौर्योत्तर कालीन अर्थ व्यवस्था काफी उन्नत थी। मौर्योत्तर काल आर्थिक दृष्टि से भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल माना जा सकता है। इस काल में शिल्प एवं व्यापार की अभूतपूर्व उन्नति हुई।

सिक्कों का प्रचलन अत्यधिक मात्रा में हुआ। इस काल में सातवाहनों और कुषाणों ने भूमिदान की अक्षयनीवी प्रणाली की शुरुआत की।

अक्षयनीवी में अक्षय का अर्थ है जो क्षय न हो जबकि नीवी का अर्थ है मूलधन। अक्षयनीवी प्रणाली का आशय था-भू-राजस्व का स्थायी दान।

मौर्योत्तर कालीन व्यापार


मौर्योत्तर कालीन व्यापार की सबसे प्रमुख विशेषता भारत का पश्चिमी देशों में साथ (मुख्य रूप से रोम) उन्नत व्यापार था। रोम के साथ यह व्यापार आगस्टस, टाईबेरियस एवं नीरो शासकों के समय में उन्नत था। सबसे अधिक व्यापार आगस्टस के काल में हुआ।
भारत में इस काल में व्यापारिक शान्ति एवं सुरक्षा का माहौल था इसलिए वाणिज्य व्यापार को पनपने के पर्याप्त अवसर मिले। इस समय व्यापार मुख्यतः स्थल मार्गों एवं पश्चिमी समुद्रतटीय मार्गों से होता था।

लगभग 47-48 ई. में हिप्पालस नामक एक यूनानी नाविक द्वारा अरब सागर में चलने वाली मानसूनी हवाओं का पता लगाने से भारत का पश्चिमी देशों के साथ समुद्रीय व्यापार और अधिक सुगम हो गया।

मध्य एशिया से गुजरने वाले व्यापारिक मार्ग को रेशममार्ग या सिल्कमार्ग कहा जाता था। जो चीन को एशियाई देशों एवं रोम साम्राज्य से जोड़ता था। भारतीय व्यापारियों की भूमिका चीनी रेशम के व्यापार में मध्यस्थ की होती थी।

प्रथम शताब्दी में रोम साम्राज्य एक महान शक्ति के रूप में उभरा, जिससे भारतीय व्यापार को काफी प्रोत्साहन मिला। क्योंकि भारत से प्राप्त होने वाली विलासिता-सामग्री की रोम में बहुत मांग थी।

"पेरीप्लस ऑफ द इरिथ्रियन सी" नामक पुस्तक से ज्ञात होता है कि भारत से रोम को निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में गोलमिर्च, मोती, हाथी दांत, जटामासी, मलमल, हीरे, केसर, रत्न, कछुए की खोपड़ी आदि प्रमुख थीं।

भारतीय मलमल की रोम में बहुत मांग थी। भारतीय व्यापारी चीन से रेशम क्रय करके उसे रोम साम्राज्य में निर्यात करते थे। इससे भारत को रोम से बड़ी संख्या में सोने एवं चाँदी के सिक्के प्राप्त होते थे। इस व्यापार से भारत को 55 करोड़ सेस्टर्स आय होती थी।

प्लिनी ने अपनी पुस्तक नेचुरल हिस्टोरिका में रोम से सारा सोना भारत पहुँचने पर दुःख व्यक्त किया है। रोम व्यापार का सर्वाधिक लाभ दक्षिण भारत (सातवाहनों) को मिला।

भारत में इथोपिया से हाथी दांत एवं सोना मंगाया जाता था। साथ ही भारत से इथोपिया में मलमल, रेशम के धागे व नीलम आदि निर्यात किये जाते थे।

मौर्योत्तर काल में भारत का चीन के साथ व्यापार भी उन्नत अवस्था में था। इस काल में लोहा मगध से, नमक पंजाब से, हीरे कश्मीर, कोसल, विदर्भ और कलिंग से, तांबा राजस्थान से, मसाले दक्षिण भारत से प्राप्त किये जाते थे।

कुषाण शासक सोना मध्य एशिया के अल्ताई पहाड़ों से प्राप्त करते थे।

मौर्योत्तर कालीन उद्योग


व्यापारिक उन्नति के कारण भारत में निम्नलिखित उद्योगों का प्रमुख रूप से विकास हुआ।

1-वस्त्र उद्योग

इस समय सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्योग वस्त्र उद्योग था। पतंजलि ने मथुरा में सटका और चित्तौड़ में माध्यमिका वस्त्र पाये जाने का उल्लेख किया है। सूती वस्त्र के अन्य केन्द्र उरैयुर तथा अरिकामेडु थे।

2-लोहा एवं इस्पात उद्योग

मौर्योत्तर काल में लोहा और इस्पात की तकनीक में भारी वृद्धि हुई। करीमनगर और नालगोण्डा लोहा और इस्पात के प्रमुख केन्द्र थे। यहाँ पर लोहे के औजार तराजू की डंडी, मूठ वाले फावड़े, कुल्हाड़ियाँ, हँसिया, फाल, उस्तरा, करछुल आदि वस्तुओं का निर्माण किया जाता था।

3-हस्ति-दन्त शिल्प उद्योग

इस काल में हाथी दाँत के निर्माण का उद्योग भी खूब फला-फूला। विदिशा में हस्ति-दन्त शिल्पियों की एक श्रेणी थी, जिसने साँची के स्तूप की रेलिंग की मरम्मत करवाई थी। भारतीय दन्त शिल्प की वस्तुएं अफगानिस्तान और रोम से मिली हैं।
   

मौर्योत्तर कालीन सिक्के


मौर्योत्तर काल के नगरों में विभिन्न प्रकार के सिक्कों का प्रचलन था। सोने के सिक्कों में निष्क, स्वर्ण तथा पण थे। शतमान चाँदी का सिक्का होता था। ताँबे के सिक्के को काकिनी कहा जाता था। सोना, चाँदी, तांबा, सीसा तथा राँगा से कार्षापण नाम का सिक्का बनता था।

कुषाण शासकों ने भारी मात्रा में सोने के सिक्के जारी किये। इन्होंने ही सर्वप्रथम शुद्ध सोने के सिक्के चलाये जो 124 ग्रेन के थे। किन्तु दैनिक जीवन के व्यापारिक लेन देन में ताँबे के सिक्कों का प्रयोग किया जाता था।

हिन्द-यवन शासकों के स्वर्ण सिक्कों पर द्विभाषिक लेख होते थे। इनमें एक तरफ यूनानी भाषा और लिपि तथा दूसरी तरफ प्राकृत भाषा व खरोष्ठी लिपि होती थी।

मौर्योत्तर कालीन शिल्पी


मौर्योत्तर काल में कारीगरी एवं शिल्पों का विलक्षण विकास हुआ। इस समय अधिकांश शिल्पी शूद्र जाति के थे। इस काल में 36 प्रकार के शिल्पियों (व्यवसायियों) का उल्लेख मिलता है।

बौद्ध ग्रन्थ मिलिन्दपन्हों में 76 व्यवसाय गिनाये गये हैं। साहित्यिक स्रोंतों में शिल्पियों को नगर में बसने वाला बताया गया है किन्तु उत्खनन प्रमाणों से पता चलता है कि कुछ शिल्पी गांवों में भी बसते थे। तेलंगाना में स्थित करीमनगर के एक गांव में बढ़ई, लोहार, कुम्हार आदि रहते थे।

व्यापारिक प्रगति के कारण शिल्पकारों ने शिल्प श्रेणियों को संगठित किया। व्यापारियों ने भी अपनी श्रेणियों को संगठित किया।

शिल्पियों ने संघ श्रेणी तथा व्यापारियों ने निगम श्रेणी की स्थापना की। बड़ी संख्या में लोग इन श्रेणियों की सदस्यता ग्रहण करते थे क्योंकि वे श्रेणी के सदस्य बनने के उपरान्त अपने को और अधिक सुरक्षित महसूस करते थे।

श्रेणी के कार्यों में सबसे महत्वपूर्ण कार्य था--उत्पादित माल की गुणवत्ता एवं उसके उचित मूल्य निर्धारण की ओर ध्यान देना।

श्रेणी के सदस्यों के व्यवहार की देख-रेख "श्रेणी न्यायाधिकरण करता था। अभिलेखीय साक्ष्य से स्पष्ट होता है कि सर्वाधिक श्रेणियां पश्चिमी दक्कन एवं मथुरा में थी।

मौर्योत्तर कालीन बन्दरगाह


पेरिप्लस ऑफ द एरीथ्रियन सी में मौर्योत्तर काल के प्रमुख बन्दरगाहों का वर्णन मिलता है जिनमें कुछ निम्नलिखित हैं।

मौर्योत्तर कालीन प्रमुख बन्दरगाह

1-बैरीगाजा या भड़ौच

इसे भृगुकच्छ भी कहा जाता है। यह भारत के पश्चिमी तट का सबसे बड़ा एवं सबसे प्राचीन बन्दरगाह था। पश्चिमी देशों के साथ अधिकांश व्यापार इसी के माध्यम से होता था। इस पत्तन पर आयातित वस्तुओं में इटली, यूनान और अरब की मदिरा प्रमुख थी।

2-अरिकमेडु

पांडिचेरी में स्थित इस बन्दरगाह का नाम पेरिप्लस में पेडोक मिलता है। इस स्थान के उत्खनन में एक रोमन बस्ती मिली है। यहाँ पर रोम की बनी हुई अनेक वस्तुयें मिली हैं जैसे-दीप का टुकड़ा, सुराही आदि। इस बन्दरगाह पर बर्तन, काँच एवं मिट्टी की मूर्तियां, मदिरा एवं सोने चाँदी के सिक्के आयात किये जाते थे तथा मलमल और मोती निर्यात किये जाते थे।

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