कुषाण वंश मौर्योत्तर कालीन भारत का ऐसा पहला साम्राज्य था, जिसका प्रभाव मध्य एशिया, ईरान, अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान तक था।
यह साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर तत्कालीन विश्व के तीन बड़े साम्राज्यों रोम, पार्थिया एवं चीन के समकक्ष था।
कुषाण वंश के इतिहास की जानकारी का मुख्य स्रोत चीनी पुस्तक history of the Han Dynasty, Analysis of Latter Han Dynasty तथा भारतीय पुस्तकें नागार्जुन कृत माध्यमिक सूत्र, अश्वघोष की बुद्धचरित हैं।
कुषाण पश्चिमी क्षेत्र के यूची जाति के थे। लगभज 165 ईसा पूर्व इसके पड़ोसी कबीले "हिंग नू" ने यूचियों के नेता को पराजित कर मार डाला। और यूचियों को पश्चिमी चीन का क्षेत्र छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
यह क्षेत्र छोड़ते समय यूची कबीला दो भागों में विभक्त हो गया। पहला कनिष्ठ यूची जो तिब्बत की ओर चला गया, दूसरा ज्येष्ठ यूची जो पश्चिम की ओर बड़े और बैक्ट्रिया, पार्थिया आदि के शासकों को पराजित किया।
कुषाण वंश के शासकों का इतिहास
भारत में कुषाण वंश का संस्थापक "कुलुज कडफिसेस" को माना जाता है। यह यूची कबीले का शक्तिशाली सरदार था। इसके नेतृत्व में यूची कबीला उत्तर के पर्वतों को पार करता हुआ भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश किया।
यहाँ इस कबीले ने यूनानी राजा हरमोयम नामक व्यक्ति को हराकर काबुल तथा कश्मीर पर अधिकार कर लिया।
कुलुज कडफिसेस द्वारा जारी किये गये प्रारम्भिक सिक्कों में एक तरफ अन्तिम यूनानी राजा हरमोयम तथा दूसरी तरफ स्वयं उसकी आकृति खुदी हुई है। बाद के सिक्कों में कुछ पर महाराजाधिराज, कुछ पर धर्मथिदस तथा कुछ पर धर्मथित खुदा हुआ मिलता है।
कुलुज कडफिसेस ने केवल ताँबे के सिक्कें चलवाये। इसका शासन 15 ई. से 65 ई. तक माना जाता है।
विम कडफिसेस
कुलुज कडफिसेस की मृत्यु के बाद विम कडफिसेस गद्दी पर बैठा। चीनी ग्रन्थ हाऊ-हान-शू से पता चलता है कि इसने तक्षशिला और पंजाब क्षेत्र को विजित किया था।
विम कडफिसेस को भारत में कुषाण शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने सोने और तांबे के सिक्के चलवाये।
भारतीय प्रभाव से प्रभावित इन सिक्कों में एक ओर यूनानी लिपि तथा दूसरी ओर खरोष्ठी लिपि खुदी हुई है।
विम कडफिसेस के कुछ सिक्कों पर शिव, नन्दी एवं त्रिशूल की आकृति बनी हुई है जिससे अनुमान लगाया जाता है कि विम कडफिसेस शैव धर्म का उपासक था।
इसने महाराजाधिराज, महेश्वर, सर्वलोकेश्वर आदि की उपाधि धारण की थी। इसका शासनकाल 65 ई. से 78 ई. तक रहा।
कनिष्क
विम कडफिसेस के बाद कुषाण वंश की बागडोर कनिष्क के हाथों में आ गयी। कुषाण शासकों में कनिष्क सबसे महान एवं योग्य शासक था।
इसके काल में कुषाण शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर थी। कनिष्क के राज्याभिषेक की तिथि 78 ई. मानी जाती है। इसी वर्ष से शक सम्वत का प्रारम्भ माना जाता है।
कनिष्क ने पुरूषपुर (पेशावर) को अपने राज्य की राजधानी बनाया। इसके राज्य की दूसरी राजधानी मथुरा थी।
कनिष्क की विजयों में सबसे महत्वपूर्ण विजय चीन पर थी। कनिष्क ने चीन के हन राजवंश के शासक पान चाओ को हराया था।
कनिष्क के समय में हुए महत्वपूर्ण कार्य
1-चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन
कनिष्क बौद्ध धर्म की महायान शाखा का अनुयायी था। कनिष्क के समय में कश्मीर के कुण्डलवन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ।
इस संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र तथा उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। यहीं पर बौद्ध धर्म हीनयान तथा महायान सम्प्रदायों में विभाजित हो गया।
इसी संगीति में महाविभाषा नामक पुस्तक का संकलन किया गया। इस पुस्तक को बौद्ध धर्म का विश्वकोष भी कहा जाता है। इस पुस्तक में तीनों पिटकों पर लिखीं गयीं टीकाएँ संकलित है।
कनिष्क बौद्ध धर्म का अनुयायी होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णु था।
गान्धार कला शैली
गान्धार कला शैली का विकास कनिष्क के काल में गान्धार में हुआ। इसे इंडो-ग्रीक शैली या ग्रीक-बुद्धिष्ट शैली भी कहा जाता है। इस कला में बुद्ध एवं बोधिसत्वों की मूर्तियां काले स्लेटी पाषाण से बनाई गई हैं।
मथुरा कला शैली
इस कला शैली का जन्म कनिष्क के समय में मथुरा में हुआ। इस शैली में लाल बलुआ पत्थर का प्रयोग हुआ है। इस शैली में बौद्ध, हिन्दू एवं जैन धर्म से सम्बन्धित मूर्तियों का निर्माण हुआ है। बुद्ध की प्रथम प्रतिमा के निर्माण का श्रेय भी इसी शैली को जाता है।
सिल्क मार्ग पर अधिकार
कनिष्क ने चीन से रोम को जाने वाले सिल्क मार्ग की तीनों मुख्य शाखाओं पर अधिकार कर लिया था।--कैस्पियन सागर से होकर जाने वाला मार्ग, रूम सागर पर बने बन्दरगाह तक जाने वाला मार्ग, भारत से लाल सागर तक जाने वाला मार्ग।
विद्वानों को आश्रय
कनिष्क कला और विद्वता का आश्रयदाता था। कनिष्क की राज्यसभा अनेक विद्वानों से सुशोभित थी। जैसे-अश्वघोष, नागार्जुन, वसुमित्र, चरक आदि। बुद्धचरित, सौन्दरनन्द, शारिपुत्रप्रकरणम एवं सूत्रालंकार के रचनाकार अश्वघोष थे।
बुद्धचरित को बौद्ध धर्म का महाकाव्य कहा जाता है। नागार्जुन दार्शनिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक भी थे। इन्हें "भारत का आईन्सटाइन" कहा जाता है। इन्होंने अपनी पुस्तक माध्यमिक सूत्र में सापेक्षता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
वसुमित्र ने बौद्ध धर्म के विश्वकोष महाविभाषा सूत्र की रचना की। चरक विद्वान एवं वैद्य था इसने चरक संहिता की रचना की।
कुषाण वंश के सिक्कों का इतिहास
सर्वप्रथम सर्वाधिक मात्रा में कुषाणों ने सोने और तांबे के सिक्के जारी किए। कनिष्क के तांबे के सिक्कों पर उसे बलिदेवी पर बलि देते हुए दर्शाया गया है। कनिष्क के अब तक प्राप्त सिक्के यूनानी और ईरानी भाषा में मिले हैं। कुषाणों ने चाँदी के सिक्के नहीं चलाये।
कुषाण वंश के पतन का इतिहास
कनिष्क की मृत्यु के बाद कुषाण वंश का पतन प्रारम्भ हो गया। कनिष्क के बाद उसका उत्तराधिकारी वासिष्क गद्दी पर बैठा। यह मथुरा और समीपवर्ती क्षेत्रों में शासन करता था।
इसके बाद क्रमशः हुविष्क, वासुदेव शासक हुए। योग्य उत्तराधिकारियों के अभाव में यमुना के तराई वाले भाग पर नाग लोगों ने अधिकार कर लिया। साकेत, प्रयाग एवं मगध को गुप्त राजाओं ने अपने अधिकार में कर लिया। नवीन राजवंशों के उदय ने भी कुषाणों के विनास में सहयोग दिया।
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