सातवाहन वंश का संस्थापक

सातवाहन वंश का संस्थापक सिमुक था। इसने लगभग 30 ईसा पूर्व कण्व वंश के अन्तिम शासक सुशर्मन की हत्या कर इस वंश की नींव डाली। तथा प्रतिष्ठान को अपने राज्य की राजधानी बनाया।

सातवाहन वंश का इतिहास पुराणों तथा अभिलेखों से पता चलता है। पुराणों में इस राजवंश को आंध्र-भृत्य एवं आंध्र-जातीय कहा गया है। किन्तु किन्तु अभिलेखों में सातवाहन कहा गया है। इसलिए इस वंश को आंध्र-सातवाहन वंश भी कहा जाता है।

सातवाहन वंश की राजकीय भाषा "प्राकृत" थी। लिपि के रूप में ये ब्राह्मी लिपि का प्रयोग करते थे। इस वंश ने 30 ईसा पूर्व से लेकर 250 ई. तक लगभग 300 वर्षों तक शासन किया। 

सातवाहन वंश के शासक


कण्व वंशी शासक सुशर्मन की हत्या कर सिमुक ने सातवाहन वंश की स्थापना की। सिमुक के विषय में अधिकांश जानकारी पुराणों और नानाघाट प्रतिमा लेख से मिलती है।
सिमुक के बाद उसका छोटा भाई कृष्ण गद्दी पर बैठा। इसके समय में सातवाहन वंश का विस्तार पश्चिम में नासिक तक हुआ।

सातवाहन वंश के शासक

कृष्ण के बाद शातकर्णी प्रथम शासक हुआ। यह सातवाहन वंश का "शातकर्णी" उपाधि धारण करने वाला प्रथम राजा था। इसके शासन के बारे में अधिकांश जानकारी इसकी रानी नागानिका के "नानाघाट" अभिलेख से मिलती है।

शातकर्णी प्रथम ने दो अश्वमेध यज्ञ तथा एक राजसूय यज्ञ सम्पन्न कर सम्राट की उपाधि धारण की। इसने दक्खिनापथपति एवं अप्रतिहतचक्र की उपाधि भी धारण की थी।

शातकर्णी प्रथम ने सातवाहन साम्राज्य का दक्षिण में विस्तार किया। सम्भवतः मालवा भी इसके अधिकार क्षेत्र में था। इसके अतिरिक्त इसने अनूप एवं विदर्भ प्रदेशों पर भी विजय प्राप्त की।

शातकर्णी प्रथम की मुद्राओं में "श्रीसात" नाम खुदा हुआ मिलता है। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इसने ब्राह्मणों तथा बौद्धों को भूमि दान में दी।

शातकर्णी प्रथम के बाद सातवाहनों का इतिहास कुछ समय के लिए अन्धकार पूर्ण रहा। शातकर्णी प्रथम तथा गौतमी पुत्र शातकर्णी के बीच कई शासक हुए।

जिनमें हाल का स्थान प्रमुख है। हाल ने प्राकृत भाषा में "गाथासप्तशती" नामक पुस्तक की रचना की। इसमें इसकी प्रेम गाथाओं का वर्णन है।

हाल के राजदरबार में "वृहत्कथा" के रचयिता गुणाढ्य तथा कातन्त्र (संस्कृत व्याकरण की पुस्तक) के लेखक सर्ववर्मन रहते थे। हाल इस वंश का महान कवि एवं साहित्यकार था।

गौतमी पुत्र शातकर्णी इस वंश का महानतम शासक था। इसने 106 ई. से 130 ई. तक शासन किया। इसकी सैनिक विजयों की जानकारी इसकी माता बलश्री के नासिक अभिलेख से मिलती है।

नासिक अभिलेख में गौतमी पुत्र शातकर्णी को "एकमात्र ब्राह्मण" एवं "अद्वितीय ब्राह्मण" कहा गया है।

गौतमी पुत्र शातकर्णी ने शक शासक नहपान को पराजित कर मार डाला। इसके राज्य की सीमा दक्षिण में गोदावरी से लेकर उत्तर में मालवा एवं काठियावाड़ तक तथा पूर्व में बरार से लेकर पश्चिम में कोंकण तक फैली हुई थी।

इसने राजराज, महाराज एवं वेणकटक स्वामी जैसी उपाधियां धारण की थी।

गौतमी पुत्र शातकर्णी को "त्रि-समुद्र तोय-पिता वाहन" भी कहा जाता था। जिसका अर्थ है उसके घोड़ों ने तीनों समुद्रों का पानी पिया था।

गौतमी पुत्र शातकर्णी के बाद उसका पुत्र वशिष्ठी पुत्र पुलुमावी राजा हुआ। इसके विषय में अमरावती से प्राप्त एक लेख से जानकारी मिलती है।

पुलुमावी अकेला सातवाहन राजा है जिसका उल्लेख अमरावती अभिलेख में मिलता है। इसे दक्षिणापथेश्वर भी कहा जाता था।

पुलुमावी के कुछ सिक्कों पर 'दो पतवारों वाले जहाज' का चित्र बना हुआ है। जो सातवाहनों की नौशक्ति विकसित होने का प्रमाण है।

पुलुमावी के बाद शिवश्री शातकर्णी शासक हुआ। इसके बाद यज्ञश्री शातकर्णी राजा हुआ। यह सातवाहन वंश का अन्तिम प्रतापी राजा था। इसके सिक्कों पर जलयान के चित्र मिलते हैं, जो उसके जलयात्रा और समुद्री व्यापार के प्रति लगाव को प्रकट करते हैं।

सातवाहनों की सामाजिक व्यवस्था


सातवाहन वंश के राजकुमारों को "कुमार" कहा जाता था। तथा बड़े पुत्र को युवराज नहीं बनाया जा सकता था।

राजा की आय का मुख्य साधन भूमिकर, नमककर एवं न्याय शुल्क था। प्रशासनिक अधिकारियों में अमात्य, महामात्र एवं भण्डारिक प्रमुख थे।

सातवाहन काल में तीन प्रकार के सामन्त पाये जाते थे-महारथी, महाभोज और महासेनापति। इनमें महारथी को सिक्के जारी करने का अधिकार था।

इस काल के अधिकतर सिक्के "सीसे" के मिले हैं। इन सिक्कों के अतिरिक्त ताँबे एवं काँसे की मुद्राओं का भी निर्माण होता था।

ब्राह्मणों को भूमिदान एवं जागीर देने की प्रथा का प्रारम्भ सर्वप्रथम सातवाहनों ने किया।

गौतमी पुत्र शातकर्णी ने वर्ण संकर कुप्रथा को रोकने के लिए वर्ण प्रथा को पुनः आरम्भ किया।

सातवाहन काल में बौद्धों के लिए अनेक चैत्य और विहार बनवाये गये।

सातवाहनों के उत्तराधिकारी

सातवाहन संस्कृति का मुख्य केन्द्र प्रतिष्ठान, गोवर्धन एवं वैजयन्ती थे, किन्तु तीसरी शताब्दी में उनकी शक्ति क्रमशः क्षीण होने लगी और स्थानीय शासक स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करने लगे। जैसे- महाराष्ट्र में आभीर वंश, बरार में वाकाटक वंश, उत्तरी कनारा में चुटुशातकर्णी वंश, आंध्र प्रदेश में इक्ष्वाकु वंश, दक्षिण-पूर्व में पल्लव वंश की सत्ता स्थापित हुई। इनमें वाकाटक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरे।

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