दक्कन में हैदराबाद के आसफजाही वंश या निजाम वंश का प्रवर्तक चिनकिलिच खाँ था। इसे निजामुलमुल्क भी कहा जाता है।
निजामुलमुल्क मुगल दरबार में तूरानी गुट से सम्बन्धित था। इसने 1724 ई. में हैदराबाद में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की थी।
सबसे पहले दक्कन में स्वतन्त्र राज्य का स्वप्न जुल्फिकार खाँ ने देखा था। जब 1708 में बहादुरशाह ने उसे दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया था। 1713 में जुल्फिकार खाँ की मृत्यु हो गई जिससे यह योजना भी समाप्त हो गयी।
जुल्फिकार खाँ की मृत्यु के बाद चिनकिलिच खाँ सैयद बन्धुओं के सहयोग से दक्कन का सूबेदार बना।
सम्राट फर्रुखसीयर ने उसे "खानखाना" और "निजामुलमुल्क-बहादुर फतह जंग" की उपाधियाँ प्रदान की। किन्तु 1715 ई. में फर्रुखसीयर ने उसे दक्कन की सूबेदारी से हटाकर मालवा का सूबेदार बना दिया।
निजामुलमुल्क को वजीर का पद मिलना
मालवा में रहते हुए निजाम ने अपनी शक्ति सुदृढ़ की। उसकी बढ़ती हुई शक्ति को देखकर सैय्यद बन्धुओं ने उसकी गतिविधियों पर नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास किया। परन्तु उसने षड्यंत्र कर सैय्यद बन्धुओं में से छोटे भाई हुसैन अली की हत्या करवा दी। अतः उसे एक बार पुनः दक्कन की सूबेदारी प्राप्त हो गई।
1722 ई. में मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने निजामुलमुल्क को अपना वजीर नियुक्त किया। वजीर पद पर कार्य करते हुए चिनकिलिच खाँ ने मालवा और गुजरात को भी दक्कन की सूबेदारी में सम्मिलित करवा लिया।
निजामुलमुल्क ने दिल्ली में सुव्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया। किन्तु सम्राट और सम्राट के चाटुकार मित्रों ने उसके सभी प्रयास विफल कर दिये।
उसने सम्राट को कर्तव्य का पाठ पढ़ाने का प्रयत्न किया। उसके कठोर अनुशासन से लोगों के मन में उसके प्रति ईष्या और द्वेष उत्पन्न हो गया।
दिल्ली दरबार में अपने विरोधियों के षड्यंत्र और मुहम्मदशाह की निष्क्रियता से दुःखी होकर उसने दक्कन जाने का विचार बना लिया।
निजामुलमुल्क का ढक्कन जाना
दिल्ली दरबार के दूषित माहौल को देखते हुए चिनकिलिच खाँ ने 1723 ई. के अन्त में बादशाह की अनुमति के बिना ही शिकार के बहाने दक्कन की ओर प्रस्थान किया।
सम्राट मुहम्मदशाह को यह बहुत बुरा लगा। उसने तत्काल मुबारिज खाँ को दक्कन का सूबेदार बना दिया और आदेश दिया कि निजाम को जीवित या मृत उपस्थित करे।
फलस्वरूप 11 अक्टूबर 1724 को मुबारिज खाँ और निजामुलमुल्क के बीच "शूकरखेड़ा" का युद्ध हुआ। निजामुलमुल्क ने बाजीराव की सहायता से मुबारिज खाँ को परास्त किया।
इस युद्ध में मुबारिज खाँ मारा गया और निजाम दक्कन का स्वामी बन गया। विवश होकर मुहम्मदशाह ने बाह्म रूप से अपनी मर्यादा बनाये रखते हुए चिनकिलिच खाँ को दक्कन का सूबेदार (वाइसराय) नियुक्त कर दिया तथा "आसफजाह" की उपाधि प्रदान की।
1725 में निजामुलमुल्क ने हैदराबाद को अपनी राजधानी बनाया। उसने "दीनानाथ" नामक एक हिन्दू को अपना "दीवान" नियुक्त किया।
पालखेड़ा का युद्ध
मराठों से मैत्री सम्बन्ध होने के बावजूद भी परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी की युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गयी। अन्ततः पालखेड़ा नामक स्थान पर निजामुलमुल्क तथा बाजीराव के मध्य युद्ध हुआ। जिसमें बाजीराव विजयी रहा, फलस्वरूप 6 मार्च 1728 को "मुंशी शिवगाँव की सन्धि" हुई।
इस सन्धि के अन्तर्गत निजामुलमुल्क ने मराठों को दक्कन की सरदेशमुखी व चौथ वसूलने का तथा शम्भूजी को किसी भी प्रकार का आश्रय न देने का वचन दिया। 21 मई 1748 को निजामुलमुल्क की मृत्यु हो गई।
निजामुलमुल्क में वे सभी गुण थे जो स्वतन्त्र राज्य बनाने के लिए आवश्यक होते हैं। वह सफल कूटनीतिज्ञ, अवसरवादी एवं परोपकारी शासक था। उसने शान्ति स्थापित की, कृषि और उद्योग को बढ़ावा दिया जिससे वह लोकप्रिय बन गया।
इसके पूर्वज समरकंद के निवासी थे। इसके पिता गाजीउद्दीन सिद्दीकी फिरोजजंग औरंगजेब की सेवा में थे। निजाम के उत्तराधिकारियों ने सितम्बर 1798 तक हैदराबाद पर शासन किया।
सितम्बर 1798 में तत्कालीन शासक निजाम अली ने वेलेजली की सहायक सन्धि स्वीकार कर ली। इस प्रकार हैदराबाद के शासक अंग्रेजो के आश्रित हो गये। हैदराबाद भारतीय राज्यों में ऐसा राज्य था जिसने सहायक सन्धि के अन्तर्गत आश्रित सेना रखना स्वीकार किया था।
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