आर्य समाज और उसके सिद्धान्त तथा नियम सबसे पहले बम्बई में गठित किये गये। इसकी स्थापना 10 अप्रैल 1875 ई. में स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने गुरु स्वामी विरजानन्द की प्रेरणा से बम्बई में की थी।
1877 ई. इसका मुख्यालय बम्बई से स्थानान्तरित करके लाहौर बनाया गया। जिसके कारण यह आन्दोलन उत्तर भारत में अधिक लोकप्रिय हुआ।
इस समाज का मुख्य उद्देश्य भारत को धार्मिक, सामाजिक व राष्ट्रीय रूप से एक करना तथा वैदिक धर्म को पुनः शुद्ध रूप में स्थापित करना था। इसके लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने "पुनः वेदों की ओर लौटो" का नारा दिया।
आर्य समाज ने बाल विवाह, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा, बहु विवाह, जाति व्यवस्था, छुआछूत, विधवा को हेय मानना आदि सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया।
धार्मिक क्षेत्र में इस समाज ने मूर्ति पूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद, पशुबलि, श्राद्ध, मंत्र तंत्र तथा झूठे कर्मकाण्ड को स्वीकार नहीं किया। किन्तु इसने कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था को स्वीकार किया।
आर्य समाज के कार्य का सबसे अधिक प्रभाव विद्या, सामाजिक सुधार तथा सेवा के क्षेत्र में देखने को मिला। इस समाज ने स्त्री पुरुष समानता, सभी मनुष्यों ने भ्रातृत्वभाव, जातियों के बीच न्यायपूर्ण निष्पक्षता, प्रेम तथा दान की भावना, शिक्षा तथा ज्ञान के प्रसार आदि के साथ स्त्री शिक्षा पर विशेष जोर दिया।
आर्य समाज ने "शुद्धि आन्दोलन" भी चलाया। जिसके अंतर्गत उन लोगों को हिन्दू धर्म में वापस लाया गया। जिन्होंने किसी कारण वश अन्य धर्म ग्रहण कर लिया था। इस समाज का प्रचार पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार में प्रमुख रूप से हुआ।
आर्य समाज के संस्थापक
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती थे। इनका जन्म 12 फरवरी 1824 में गुजरात के टंकारा नामक स्थान पर एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था। इनके पिता वेदों के विद्वान थे। उन्होंने ही इन्हें वैदिक न्याय दर्शन की प्रारंभिक शिक्षा दी।
वेदों को जानने की जिज्ञासा में 1845 ई. में 21 वर्ष की आयु में इन्होंने घर छोड़ लिया। 1848 ई. में इनकी मुलाकात दण्डी स्वामी पूर्णानन्द से हुई। जिनसे इन्होंने सन्यास की शिक्षा ली। दण्डी स्वामी पूर्णानन्द ने ही इन्हें दयानंद सरस्वती नाम दिया।
1861 ई. में स्वामी दयानंद सरस्वती मथुरा पहुँचे जहाँ नेत्रहीन स्वामी विरजानंद से इन्होंने शुद्ध वैदिक धर्म के विषय ज्ञान प्राप्त किया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने उपदेशों का प्रचार आगरा से प्रारम्भ किया।
1863 ई. में इन्होंने हिन्दू धर्म के प्रचार के लिए तथा झूठे धर्मों का खण्डन करने के लिए आगरा में "पाखण्ड खण्डिनी पताका" लहराई।
स्वामी दयानंद सरस्वती को भारत का हिन्दू लूथर किंग अथवा मार्टिन लूथर कहा जाता है। 30 अक्टूबर 1883 ई. में अजमेर में इनकी मृत्यु हो गयी।
स्वामी दयानंद सरस्वती के सभी विचार इनकी हिन्दी में लिखी पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश" में वर्णित हैं।
आर्य समाज के सिद्धान्त
आर्य समाज के सिद्धान्त तथा नियम सबसे पहले बम्बई में गठित किये गये। इसके बाद इनको लाहौर में 1877 ई. पुर्नगठित कर निश्चित रूप दिया गया। तब से लेकर आज तक इनको परिवर्तित नहीं किया गया है। ये निम्नलिखित हैं।
1-सब सत्य विद्या और जो विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।
2-वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेद पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परमधर्म है।
3-सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।
4-सब काम धर्मानुसार अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करना चाहिए।
5-संसार का उपकार करना आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
6-सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग्य बर्ताव करना चाहिए।
7-अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।
8-प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिए। अपितु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
9-सब मनुष्यों को सामाजिक सर्व हितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए, और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र हैं।
आर्य समाज के सामाजिक सुधार
सामाजिक सुधार के क्षेत्र में दयानंद सरस्वती ने छुआछूत, जाति प्रथा, बाल विवाह तथा अन्य बुराइयों का विरोध किया।
भारत के इतिहास में वह पहले समाज सुधारक थे। जिन्होंने शूद्र तथा स्त्री को वेद पढ़ने, ऊंची शिक्षा प्राप्त करने, यज्ञोपवीत धारण करने तथा अन्य क्षेत्रों में ऊंची जाति तथा महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त करने के लिए आन्दोलन किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था का विरोध किया। किन्तु कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया। उनके अनुसार कर्म के अनुसार व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र हो सकता है। परन्तु ये चारों वर्ण समान हैं इनमें से कोई अस्पृश्य नहीं।
इस प्रकार स्वामी दयानंद ने हिन्दू समाज में समानता की भावना को जाग्रत किया। अस्पृश्यता का त्याग और स्त्री को पुरुष के बराबर अधिकार जो भारतीय संविधान का अंग हैं, इन्हीं के उपदेशों का परिणाम हैं।
आर्य समाज के धार्मिक सुधार
स्वामी दयानंद सरस्वती ने अद्वैतवाद (जिसमें कहा गया है कि "संसार एक माया है, आत्मा परमात्मा का ही भाग है, उसके अतिरिक्त सब झूठ है, संसार से पलायन ही जीवन का उद्देश्य है।) को शुद्ध वैदिक परम्परा के विपरीत बताया। उनके अनुसार प्रकृति सत है, आत्मा सत चित है, परमात्मा सतचित आनन्द है। ये तीनों ही अनादि और अनन्त हैं। दयानंद सरस्वती के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को शाश्वत मानव धर्म के अनुसार आचरण करके मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिए। इस प्रकार उन्होंने कारणात्मक एकत्ववाद एवं नियतिवाद को भी स्वीकार नहीं किया। वेदों की उच्चता, पुर्नजन्म एवं कर्म के सिद्धान्तों में उनका अटूट विश्वास था।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने कर्मकाण्ड, बाह्म आडम्बर, मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद एवं तंत्र मंत्र का विरोध किया। वे वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे। उन्होंने उपनिषद काल तक के साहित्य को स्वीकार किया। उसके बाद के साहित्य जैसे पुराणों को अस्वीकार कर दिया। वह पुराणों को मनघड़न्त कथाओं का समुच्चय मानते थे। वेद के विषय में उनका तर्क था कि वेद की भाषा अत्यंत प्राचीन है। किन्तु उन पर समय समय पर लिखे गये भाष्य सत्य नहीं हैं। अपनी बुद्धि का प्रयोग करो और वैदिक मंत्रों के अर्थों को तर्क की कसौटी पर परखो और तब अपनाओ।
उनकी शिक्षाओं से ही प्रभावित होकर अरविंद घोष नारा दिया था कि "पुनः वेदों की ओर चलो, न कि वैदिक काल की ओर"।
आर्य समाज द्वारा हिन्दू धर्म में सुधार
हिन्दू धर्म को प्रतिष्ठित करने के लिए स्वामी दयानंद ने 28 नियमों का समावेश किया। इन्होंने "शुद्धि आन्दोलन" चलाया जिसके अंतर्गत हिन्दू धर्म का परित्याग करके अन्य धर्म अपनाने वालों के लिए पुनः हिन्दू धर्म में वापस आने का मार्ग खोल दिया गया।
1882 ई. में इन्होंने गायों की रक्षा के लिए "गौरक्षिणी समिति" बनाई। उस समय जब अन्य धर्म प्रचारक हिन्दू धर्म की कुरीतियों और झूठे विश्वासों की खिल्ली उड़ाते थे। तब स्वामी दयानंद सरस्वती ने उनके धर्मों में भी त्रुटियां निकाली। फलस्वरूप हिन्दू धर्म अनुयायियों में एक नया आत्म विश्वास, आत्म परीक्षण व आत्म शुद्धि की भावना जागी।
आर्य समाज की राष्ट्रीय जागरण में भूमिका
राष्ट्रीय जागरण में स्वामी जी का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने स्वदेशी, स्वधर्म, स्वभाषा और स्वराज पर बल दिया। वे पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने स्वराज शब्द का प्रयोग किया तथा स्वदेशी पर जोर दिया और हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया। उन्होंने कहा कि "बुरे से बुरा देशी राज्य अच्छे से अच्छे विदेशी राज्य से अच्छा होता है।" एनी बेसेंट के अनुसार दयानंद पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने "भारत भारतीयों के लिए है" का नारा दिया। 1907 ई. में वेलेन्टाइन चिरोल ने अपनी पुस्तक "इण्डियन अनरेस्ट" में दयानंद सरस्वती के आर्य समाज को "भारतीय अशान्ति का जन्मदाता" कहा। चिरोल के अक्षेपों का उत्तर लाला लाजपत राय ने अपनी पुस्तक "हिस्ट्री ऑफ द आर्य समाज" दिया।
स्वामी दयानंद सरस्वती की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों में अंग्रेजी भाषा को लेकर मतभेद हो गया। लाला हंसराज तथा लाला लाजपत राय अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देना चाहते थे। अतः उन्होंने लाहौर में " दयानंद एंग्लो-वैदिक कॉलेज" की स्थापना की। स्वामी श्रद्धानन्द, लेखराय तथा मुंशीराम भारत की प्राचीन पद्धति के आधार पर शिक्षा देने के समर्थक थे। अतः उन्होंने 1902 ई. में हरिद्वार में गुरूकुल विश्वविद्यालय की स्थापना की। महिलाओं के लिए पंडिता रमाबाई ने 1881 ई. में "आर्य महिला समाज" की स्थापना की। 1889 ई. में इन्होंने महिलाओं की शिक्षा के लिए "शारदा सदन" तथा निराश्रित महिलाओं के लिए "मुक्ति सदन" की स्थापना की।
Q-किसे भारत का मार्टिन लूथर का जाता है?
@-दयानंद सरस्वती को
Q-सत्यार्थ प्रकाश किसी भाषा में लिखी गयी है?
@-हिन्दी भाषा में
Q-किस संगठन ने शुद्धि आन्दोलन चलाया?
@-आर्य समाज ने
Q-महाराष्ट्र में आर्य महिला समाज की स्थापना किसके द्वारा की गयी?
@-पंडिता रमाबाई द्वारा
Q-वेदों के पुनरुत्थान का श्रेय किसे दिया जाता है?
@-दयानंद सरस्वती को
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