पृथ्वी की सतह पर दो प्रकार के बल कार्य करते हैं। एक अन्तर्जात बल तथा दूसरा बहिर्जात बल। अन्तर्जात बल पृथ्वी के आन्तरिक भागों से उत्पन्न होता है। यह बल भू-तल पर विषमताओं का सृजन करता है। तथा बहिर्जात बल पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होता है। यह बल भू-तल पर समतल की स्थापना करता है।
अन्तर्जात बल (Endogenetic Force)
1-आकस्मिक बल
इस बल से भूपटल पर विनाशकारी घटनाओं का आकस्मिक आगमन होता है। जैसे भूकम्प, ज्वालामुखी व भू-स्खलन
2-दीर्घकालिक बल
इसे पटल विरूपणी बल (Diastrophic force) भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत लम्बवत तथा क्षैतिज संचलन आते हैं। इन संचलनों को क्रमशः महाद्वीप निर्माण कारी लम्बवत संचलन तथा पर्वत निर्माण कारी क्षैतिज संचलन कहते हैं।
a-महाद्वीप निर्माणकारी लम्बवत संचलन
इस संचलन से महाद्वीपीय भागों का निर्माण एवं उत्थान या निर्गमन होता है। लम्बवत संचलन भी दो प्रकार के होते हैं--उपरिमुखी और अधोमुखी। जब महाद्वीपीय भाग या उसका कोई क्षेत्र अपनी सतह से ऊपर उठ जाता है। तो उस पर लगने वाले बल को उपरिमुखी बल तथा इस क्रिया को उपरिमुखी संचलन कहते हैं। जैसे कच्छ की खाड़ी के निकट लगभग 24 km लंबी भूमि कई km ऊपर उठ गयी है। जिसे अल्लाह का बाँध कहते हैं। इसके विपरीत जब महाद्वीपीय भागों में धंसाव हो जाता है। तो उस पर लगने वाले बल को अधोमुखी बल तथा इस क्रिया को अवतलन या अधोमुखी संचलन कहते हैं। जैसे मुम्बई प्रिंस डॉक यार्ड क्षेत्र के जलमग्न वन।
b-पर्वत निर्माणकारी क्षैतिज संचलन
पृथ्वी के आन्तरिक भाग से क्षैतिज रूप में पर्वतों के निर्माण में सहायक संचलन बल को पर्वत निर्माणकारी संचलन कहा जाता है। इस संचलन में दो प्रकार के बल कार्य करते हैं---संपीडन बल व तनाव बल। जब क्षैतिज संचलन बल विपरीत दिशाओं में क्रियाशील होता है। तो तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जिससे धरातल में भ्रंश, चटकनें व दरार आदि का निर्माण होता है। अतः इसे तनाव बल कहते हैं। और जब क्षैतिज संचलन बल आमने सामने क्रियाशील होता है तो चट्टानें संपीडित हो जाती हैं। जिससे धरातल में संवलन व वलन पड़ जाते हैं। अतः इसे संपीडन बल कहते हैं।
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वलन (Folding)
पृथ्वी के आन्तरिक भागों में उत्पन्न अन्तर्जात बलों के क्षैतिज संचलन द्वारा धरातलीय चट्टानों में संपीडन के कारण लहरों के रूप में पड़ने वाले मोड़ों को वलन कहते हैं। वलन के कारण चट्टानों के ऊपर उठे हुए भाग को अपनति (Anticline) तथा नीचे धँसे हुए भाग को अभिनति (Syncline) कहते हैं।
वलनों के प्रकार (Types of Folds)
संपीडन बल में भिन्नता के कारण वलन के प्रकारों में भी अन्तर होता है।
1-सममित वलन (Symmetrical Fold)
इसमें वलन की दोनों भुजाओं की लम्बाई व ढलान समान होती है। इसे सरल वलन या खुले प्रकार का वलन भी कहते हैं। जब दबाव शक्ति की तीव्रता कम एवं दोनों दिशाओं में समान हो, तो इस प्रकार के वलन का निर्माण होता है। जैसे-स्विट्जरलैंड का जूरा पर्वत
2-असममित वलन (Asymmetrical Fold)
इसमें वलन की दोनों भुजाओं की लम्बाई व ढाल असमान होती है। कम झुकाव वाली भुजा अपेक्षाकृत बड़ी तथा अधिक झुकाव वाली भुजा छोटी होती है। जैसे-ब्रिटेन का दक्षिणी पेनाइन पर्वत
3-एकदिग्नत वलन (Monoclinal Fold)
जब किसी वलन की एक भुजा सामान्य झुकाव व ढाल वाली तथा दूसरी भुजा उस पर समकोण बनाती है एवं उसका ढाल खड़ा होता है। इस प्रकार के वलन को एकदिग्नत वलन कहते हैं। जैसे-आस्ट्रेलिया का ग्रेट डिवाइडिंग रेंज
4-समनत वलन (Isoclinal Fold)
समनत वलन में वलन की दोनों भुजाएँ समानान्तर होती हैं। लेकिन क्षैतिज दिशा में नहीं होती हैं। इस वलन में आगे का भाग लटकता हुआ प्रतीत होता है। ऐसे वलन में संपीडन की तीव्रता स्पष्ट दिखाई देती है। जैसे-पाकिस्तान का काला चित्ता पर्वत
5-परिवलित वलन (Recumbent Fold)
अत्यधिक तीव्र क्षैतिज संचलन के कारण जब वलन की दोनों भुजाएँ एक दूसरे के समानान्तर और क्षैतिज दिशा में होती जाती हैं। तो उसे परिवलित वलन कहते हैं। इसे दोहरा मोड़ भी कहा जाता है। जैसे-ब्रिटेन का कौरिक कैसल पर्वत
6-अधिवलन (Over Fold)
इस वलन में वलन की एक भुजा बिल्कुल खड़ी न रहकर कुछ आगे की ओर निकली हुई रहती है एवं तीव्र ढाल बनाती है। जबकि दूसरी भुजा अपेक्षाकृत लम्बी होती है और कम झुकी होने के कारण धीमी ढाल बनाती है। इस वलन का निर्माण तब होता है जब दबाव शक्ति एक दिशा में तीव्र होती है। जैसे-कश्मीर की पीर पंजाल श्रेणी
7-अधिक्षिप्त या प्रतिवलन (Overthrust or Overturned Fold)
जब अत्यधिक संपीडन बल के कारण परिवलित वलन की एक भुजा टूट कर दूर विस्थापित हो जाती है, तब उस विस्थापित भुजा को ग्रीवाखण्ड कहते हैं। जिस तल पर भुजा का विस्थापन होता है उसे व्युत्क्रम भ्रंश तल कहते हैं। वहीं जब परिवलित वलन में अत्यधिक संपीडन के कारण वलन के नीचे की भुजा, ऊपरी भुजा के ऊपर विस्थापित हो जाती है। तब उसे प्रतिवलन कहते हैं। जैसे-कश्मीर घाटी एक ग्रीवा खण्ड पर अवस्थित है।
8-पंखा वलन (Fan Fold)
क्षैतिज संचलन का समान रूप से क्रियाशील न होने के कारण विभिन्न स्थानों में संपीडन की भिन्नता के साथ ही पंखे के आकार की वलित आकृति का निर्माण होता है। जिसे पंखा वलन कहते हैं। जैसे-पाकिस्तान स्थित पोटवार,
भ्रंशन (Fault)
इसके अन्तर्गत दरारें, विभंग व भ्रंशन को शामिल किया जाता है। भू-पटल में एक तल के सहारे चट्टानों के स्थानान्तरण से उत्पन्न संरचना को भ्रंश कहते हैं। भ्रंशन की उत्पत्ति क्षैतिज संचलन के दोनों बलों ( संपीडन व तनाव बल) से होती है। परन्तु तनाव बल का स्थान अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिकतर भ्रंश इसी के कारण उत्पन्न हुए हैं।इसे भी पढ़ें-- डेल्टा किसे कहते हैं?
भ्रंशन के प्रकार (Kinds of Faults)
भ्रंशन के प्रकार (Kinds of Faults)
1-सामान्य भ्रंश (Normal Faults)
जब चट्टानों में दरार पड़ जाने के कारण उसके दोनों खण्ड विपरीत दिशा में खिसक जाते हैं, तो उसे सामान्य भ्रंशन कहते हैं। इसमें भूपटल में प्रसार होता है। सामान्य भ्रंश का निर्माण तनाव बल के कारण होता है।
2-व्युत्क्रम या उत्क्रम भ्रंश (Reverse Fault)
जब चट्टानों में दरार पड़ जाने के कारण उसके दोनों खण्ड एक दूसरे की ओर खिसकते हैं और एक दूसरे के ऊपर आरूढ़ हो जाते हैं। इस प्रकार निर्मित भ्रंश को व्युत्क्रम भ्रंश कहते हैं। इसे आरूढ़ भ्रंश भी कहा जाता है। ये भ्रंश संपीडन बल के कारण निर्मित होते हैं। इस भ्रंशन से कगारों का निर्माण होता है। जैसे-पश्चिमी घाट कगार, विंध्यन कगार क्षेत्र में लटकती घाटियाँ एवं जलप्रपात का विकास। इस प्रकार के भ्रंशन में सतह का फैलाव पहले की अपेक्षा घट जाता है।
3-सोपानी भ्रंश (Step Fault)
जब किसी क्षेत्र में एक दूसरे के समानान्तर कई भ्रंश होते हैं एवं सभी भ्रंश तलों की ढाल एक ही दिशा में होती है। तो इसे सोपानी या सीढ़ीदार भ्रंश कहते हैं। इस भ्रंशन में अधक्षेपित खण्ड का अधोगमन एक ही दिशा में होता है। जैसे-यूरोप की राइन घाटी
4-Transcurrent Fault or Strike-slip Fault
जब स्थल पर दो विपरीत दिशाओं से दबाव पड़ता है तो दोनों ओर के भू-खण्ड भ्रंश तल के सहारे आगे पीछे खिसक जाते हैं। इस प्रकार के भ्रंश को ट्रांसकरेन्ट भ्रंश कहते हैं। जैसे-कैलिफोर्निया का एंड्रियास भ्रंश,
भ्रंशन के कारण निर्मित स्थलाकृतियां
भ्रंशन के कारण पृथ्वी पर कई प्रकार की भू-आकृतियां निर्मित होती हैं।
a-भ्रंश घाटी (Rift Valley)
जब दो समानान्तर भ्रंशों का मध्यवर्ती भाग नीचे धँस जाता है तो उसे द्रोणी या भ्रंश घाटी कहते हैं। जर्मन भाषा में इसे "ग्राबेन (Graben)" कहा जाता है। जैसे-जॉर्डन भ्रंश घाटी, (जिसमें मृतसागर स्थित है) कैलिफोर्निया क्षेत्र में स्थित मृत घाटी,(यह समुद्र तल से भी नीची है।) अफ्रीका की न्यासा, रूडोल्फ, तांगानिका, अल्बर्ट व एडवर्ड झीलें भू-भ्रंश घाटी में ही स्थित है। भारत में नर्वदा, ताप्ती व दामोदर नदी घाटियाँ भ्रंश घाटियों के प्रमुख उदाहरण हैं।
b-रैम्प घाटी (Ramp Valley)
रैम्प घाटी का निर्माण उस स्थिति में होता है जब दो भ्रंश रेखाओं के बीच स्तम्भ यथा स्थिति में ही रहे परन्तु संपीडनात्मक बल के कारण किनारे के दोनों स्तम्भ ऊपर उठ जाये। जैसे-असम की ब्रह्मपुत्र घाटी
c-भ्रंशोत्थ पर्वत (Block Mountain)
जब दो भ्रंशों के बीच का स्तम्भ यथावत रहे एवं किनारे के स्तम्भ नीचे धँस जाये तो ब्लॉक पर्वत का निर्माण होता है। जैसे-भारत का सतपुड़ा पर्वत, जर्मनी का ब्लैक फॉरेस्ट व वास्जेस पर्वत, पाकिस्तान का साल्ट रेंज ब्लॉक पर्वत, अमेरिका का स्कीन्स माउंटेन, वासाच रेंज ब्लॉक पर्वत आदि कैलिफोर्निया में स्थित सियरा नेवादा विश्व का सबसे विस्तृत ब्लॉक पर्वत है।
d-हॉर्स्ट पर्वत (Horst Mountain)
जब दो भ्रंशों के किनारों के स्तम्भ यथावत रहे एवं बीच का स्तम्भ ऊपर उठ जाये तो हॉर्स्ट पर्वत का निर्माण होता है। जैसे- जर्मनी का हॉर्ज पर्वत
बहिर्जात बल (Exogenetic Force)
पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होने वाले बल को बहिर्जात बल कहते हैं। बहिर्जात बल को "भूमि विघर्षण बल" भी कहा जाता है। बहिर्जात बल का भू-पटल पर प्रमुख कार्य अनाच्छादन (Denudation) होता है। अनाच्छादन के अन्तर्गत अपक्षय, वृहदक्षरण, संचरण, अपरदन व निक्षेपण आदि क्रियाएँ आती हैं। अनाच्छादन स्थैतिक तथा गतिशील दोनों क्रियाओं का योग है। अपक्षय में स्थैतिक क्रिया होती है जबकि अपरदन में गतिशील क्रिया होती है।इसे पोस्ट को भी पढ़ें-- चट्टानों के प्रकार
भौतिक अपक्षय को विघटन (Disintegration) तथा रासायनिक अपक्षय को वियोजन (Decomposition) कहते हैं। उष्ण कटिबंधीय आद्र भागों में रासायनिक अपक्षय होता है जबकि उष्ण व शुष्क मरूस्थलीय भागों में भौतिक अपक्षय होता है। वे सभी क्रियाएँ जो धरातल को सामान्य तल पर लाने का प्रयास करती हैं, उन्हें "प्रवणता संतुलन की क्रियाएँ" कहते हैं। बाह्म कारकों द्वारा स्थलीय धरातल के अपरदन को निम्नीकरण कहते हैं। धरातल की नीची जगहों को भरकर ऊँचा करना अभिवृद्धि कहलाती है।
1-अपक्षय (Weathering)
ताप, जल, वायु तथा प्राणियों के कार्यों के प्रभाव, जिनके द्वारा यांत्रिक व रासायनिक परिवर्तनों से चट्टानों के अपने ही स्थान पर कमजोर होने, टूटने, सड़ने एवं विखंडित होने को "अपक्षय" को अपक्षय कहते हैं। जैसे ही चट्टान धरातल पर अनावृत होकर मौसमी प्रभावों से प्रभावित होते हैं, यह प्रक्रिया शुरू हो जाती है। कारकों के आधार पर अपक्षय को तीन प्रकारों में विभक्त किया गया है।
क-भौतिक या यांत्रिक अपक्षय
¡-ताप के कारण छोटे-बड़े टुकड़ो में विघटन
¡¡-तुषार-चीरण अर्थात चट्टानों में जल का प्रवेश
¡¡¡-घर्षण
¡v-दबाव
ख-रासायनिक अपक्षय
¡-ऑक्सीकरण
¡¡-कार्बोनेटिकरण
¡¡¡-जलयोजन
ग-प्राणिवर्गीय अपक्षय
¡-वानस्पतिक अपक्षय
¡¡-जैविक अपक्षय
¡¡¡-मानवीय क्रियाओं द्वारा अपक्षय
2-अपरदन (Erosion)
अपक्षयित पदार्थों का अन्यत्र स्थानान्तरण "अपरदन" कहलाता है। अपरदन में भाग लेने वाली प्रमुख क्रियाएँ निम्नलिखित हैं।
a-अपघर्षण (Abrasion)
वह प्रक्रिया जिसमें कोई जल प्रवाह अपने साथ कंकड़, पत्थर व बालू आदि पदार्थों के साथ आगे बढ़ता है तो इन पदार्थों के सम्पर्क आने वाली चट्टानों एवं किनारों का क्षरण होने लगता है। इस क्रिया को अपघर्षण कहते हैं।
b-सन्निघर्षण (Attrition)
जब किसी प्रवाह में प्रवाहित होने वाले पदार्थ आपस में घर्षण कर छोटे होने की प्रक्रिया को सन्निघर्षण कहते हैं।
c-संक्षारण (Corosion)
घुलनशील चट्टानों जैसे-डोलोमाइट, चुना पत्थर आदि का जल क्रिया द्वारा घुलकर शैल से अलग होना संक्षारण कहलाता है। यह भूमिगत जल एवं बहते जल द्वारा होता है। इससे कार्स्ट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
d-जलीय क्रिया (Hydraulic Action)
जब जल प्रवाह की गति के कारण चट्टानें टूट-फुटकर अलग हो जाती हैं। तो उसे जलीय क्रिया कहते हैं। यह क्रिया सागरीय तरंगों, हिमानियों एवं नदियों द्वारा होती है।
e-जल दाब क्रिया (Water Pressure)
जब किसी चट्टान में जल के दबाव के कारण अपरदन क्रिया होती है तो उसे जल दबाव क्रिया कहा जाता है। यह मुख्यतः सागरीय तरंगों द्वारा होती है।
f-उत्पाटन (Plucking)
इस प्रकार का अपरदन हिमानी क्षेत्रों में होता है। वर्षा तथा हिम पिघलने से प्राप्त जल चट्टानों की सन्धियों में प्रविष्ट हो जाता है तथा ताप की कमी के कारण जमकर हिम रूप धारण कर लेता है, जिस कारण चट्टान कमजोर हो जाती हैं और इनसे बड़े बड़े टुकड़े टूट कर अलग होते रहते हैं। यह प्रक्रिया उत्पाटन कहलाती है।
g-अपवहन (Deflation)
यह पवन के द्वारा शुष्क या अर्ध-शुष्क प्रदेशों में अवसादों की उड़ाव की क्रिया है।
अन्य पोस्ट-- प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त
3-वृहद संचलन (Mass Movement)
3-वृहद संचलन (Mass Movement)
गुरुत्वाकर्षण के सीधे प्रभाव के कारण शैलों के मलवा का चट्टान की ढाल के अनुरूप रूपान्तरण हो जाता है। इस क्रिया को वृहद संचलन कहते हैं। वृहद संचलन अपरदन के अन्तर्गत नहीं आता है।
4-निक्षेपण (Deposition)
निक्षेपण अपरदन का परिणाम होता है। ढाल में कमी के कारण जब अपरदन के कारकों का वेग कम हो जाता है तो अवसादों का निक्षेपण प्रारम्भ हो जाता है। अर्थात निक्षेपण किसी कारक का कार्य नहीं है।
अपरदन चक्र (Erosion Cycle)
अमेरिका के भूगोलवेत्ता विलियम मोरिस डेविस ने अपरदन चक्र की परिकल्पना का प्रतिपादन 1899 में किया था। डेविस के अनुसार किसी भी स्थलाकृति का निर्माण तथा विकास ऐतिहासिक क्रम में होता है, जिसके अन्तर्गत उसे तरुण (Young), प्रौढ़ एवं जीर्ण अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है। डेविस की इस विचार धारा पर डार्विन की "जैविक विकासवादी अवधारणा" का प्रभाव है। डेविस के अनुसार स्थलाकृतियाँ मुख्य रूप से तीन कारकों का परिणाम होती हैं।
1-चट्टानों की संरचना , 2-अपरदन के प्रक्रम, 3-समय की अवधि या विभिन्न अवस्थायें। इन्हें "डेविस के त्रिकूट ( Trio of Davis)" के नाम से जाना जाता है।
डेविस के अनुसार अपरदन चक्र समय की वह अवधि है, जिसमें एक उत्थित भू-खण्ड अपरदन की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए अंततः समतल प्राय मैदान में बदल जाता है तथा इसमें कहीं-कहीं थोड़े उठे हुए भाग "मोनाडनॉक" के रूप में शेष बचे रहते हैं। इस अपरदन चक्र को डेविस ने भौगोलिक चक्र का नाम दिया।
जर्मन वैज्ञानिक वाल्टर पेंक ने डेविस के सिद्धान्त की आलोचना की तथा मॉर्फोलॉजिकल सिस्टम की अवधारणा प्रस्तुत की। जिसके अनुसार, स्थलाकृतियाँ उत्थान एवं निम्नीकरण की दर तथा दोनों की प्रवस्थाओं के परस्पर सम्बन्धों का प्रतिफल होती हैं। उन्होंने उठते हुए स्थल खण्डों को प्राइमारम्प कहा तथा अपरदन के पश्चात बने समतल प्राय मैदान को इंड्रम्प कहा।
अपरदन चक्र से सम्बन्धित अन्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं।
पेडीप्लनेशन चक्र------------एल. सी. किंग
कार्स्ट अपरदन चक्र------------बीदी
अपरदन के प्रक्रम
इसके अन्तर्गत बहता जल, भूमिगत जल, सागरीय तरंग, हिमानी तथा पवन आदि आते हैं।1-नदी प्रक्रम
कोई नदी अपनी सहायक नदियों समेत जिस क्षेत्र का जल लेकर आगे बढ़ती है, वह स्थान प्रवाह क्षेत्र या नदी द्रोणी या जल ग्रहण क्षेत्र कहलाता है। एक नदी द्रोणी दूसरी नदी द्रोणी से जिस उच्च भूमि द्वारा अलग होती है, उस जल विभाजक क्षेत्र कहते हैं। जैसे अरावली पर्वत श्रेणी और इसके उत्तर की उच्च भूमि सिन्धु तथा गंगा द्रोणियों के जल को विभाजित करती है। नदियां अपने ढालों के अनुरूप बहती है। बहते हुए जल द्वारा निम्न प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
a-V-आकार की घाटी
नदी द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों में की गई ऊर्ध्वाधर काट के कारण गहरी, संकीर्ण और V-आकार की घाटी का निर्माण होता है। इनमें दीवारों का ढाल तीव्र व उत्तल होता है। आकार के अनुसार ये घाटी दो प्रकार की होती हैं।
Gorge (कन्दरा)
जहाँ शैलें कठोर होती हैं। वहाँ पर V- आकार गहरी व सँकरी होती है। नदी की ऐसी गहरी व संकरी घाटी, जिसके दोनों किनारे खड़े होते हैं। कन्दरा व गॉर्ज कहलाती है। जैसे-सिन्धु नदी द्वारा निर्मित सिन्धु गॉर्ज, सतलज नदी द्वारा निर्मित शिपकीला गॉर्ज तथा ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा निर्मित दिहांग गॉर्ज
कैनियन
जब किसी पठारीय भाग में शैलें आड़ी तिरछी हों और वर्षा भी कम हो तो उस स्थान पर बहने वाली नदी की घाटी बहुत गहरी और तंग होती है। ऐसी गहरी तंग घाटी को कैनियन या आई-आकार की घाटी कहते हैं। जैसे-अमेरिका में कोलोरैडो नदी पर स्थित "ग्रैंड कैनियन"
जब नदियों का जल ऊँचाई से खड़े ढाल से अत्यधिक वेग से नीचे की ओर गिरता है तो उसे जल प्रपात कहते हैं। इसका निर्माण असमान अपरदन, भूखण्ड में उत्थान व भ्रंश कगारों के निर्माण आदि के कारण होता है। जैसे-विश्व का सर्वाधिक ऊँचा वेनुजुऐला का साल्टो एंजेल प्रपात, उत्तरी अमेरिका एवं कनाडा का नियाग्रा जलप्रपात,दक्षिण अफ्रीका में जिम्बाब्वे की जाम्बेजी नदी पर स्थित विक्टोरिया जल प्रपात, लुआलाबा नदी पर स्थित स्टेनली जल प्रपात,सांगपो नदी पर स्थित हिंडेन प्रपात, पोटोमेक नदी पर स्थित ग्रेट प्रपात, न्यू नदी पर सैंड स्टोन प्रपात तथा कोलम्बिया नदी पर स्थित सेलिलो प्रपात। भारत में कर्नाटक राज्य में शरावती नदी पर स्थित जोग या गरसोप्पा जल प्रपात (260 मीटर), नर्वदा नदी का धुँआधार जल प्रपात (9 मीटर), सुवर्णरेखा नदी का हुण्डरू जल प्रपात (97 मीटर) आदि।
जब नदियाँ पर्वतीय भाग से निकलकर समतल प्रदेश में प्रवेश करती हैं। तो चट्टानों के बड़े बड़े अवसाद पीछे छूट जाते हैं इन अवसादों से बनी आकृति जलोढ़ शंकु कहलाती है। विभिन्न जलोढ़ शंकुओं के मिलने से भाबर प्रदेश का निर्माण होता है।
पर्वतीय भाग से निकलने के पश्चात् नदियों के अवसाद दूर-दूर तक फैल जाते हैं। जिससे पंखनुमा मैदान का निर्माण होता है। जिसे जलोढ़ पंख कहते हैं। कई जलोढ़ पंखों के मिलने से गिरिपाद मैदान या तराई क्षेत्र का निर्माण होता है। जलोढ़ पंख की चोटी के पास नदी कई शाखाओं में विभक्त हो जाती हैं, जो गुम्फित नदी कहलाती है। नदी द्वारा जलोढ़ पंख का निर्माण नदी की तरुणावस्था के अन्तिम चरण तथा प्रौढ़वस्था के प्रथम चरण का परिचायक है।
मैदानी क्षेत्रों में नदियों का क्षैतिज अपरदन अधिक सक्रिय होने के कारण नदी की धारा दाएँ-बाएँ, बल खाती हुई प्रवाहित होती है जिसके कारण नदी के मार्ग में छोटे बड़े मोड़ बन जाते हैं। इन मोड़ो को नदी का विसर्प कहते हैं। विसर्प "S" आकार के होते हैं। नदियों का विसर्प बनाने का कारण अधिक अवसादी बोझ होता है।
f-गोखुर झील (Oxbow Lake)
जब नदी अपने विसर्प को त्याग कर सीधा रास्ता पकड़ लेती है। तब नदी का अवशिष्ट भाग गोखुर झील या छाड़न झील कहलाता है।
प्रवाह के दौरान नदियाँ अपरदन के साथ-साथ बड़े-बड़े अवसादों का किनारों पर निक्षेपण भी करती हैं, जिससे किनारों पर बांधनुमा आकृति का निर्माण हो जाता है। इसे प्राकृतिक तटबन्ध कहते हैं।
h-बाढ़ का मैदान (Flood plain)
मैदानी भाग में भूमि समतल होती है। अतः जब नदी में बाढ़ आती है तो बाढ़ का जल नदी के समीपवर्ती समतल भाग में फैल जाता है। इस जल में बालू तथा मिट्टी मिली हुई रहती है। बाढ़ के हटने के बाद यह मिट्टी वहीं जमा हो जाती है। मिट्टी के निक्षेपण से सम्पूर्ण मैदान समतल और लहरदार प्रतीत होता है। इस प्रकार के मैदान जलोढ़ मिट्टी के मैदान कहलाते हैं। उत्तरी भारत का मैदान इसका उत्तम उदाहरण है।
i-डेल्टा (Delta)
निम्नवर्ती मैदानों में ढाल कम होने तथा अवसादों का अधिकता में होने से नदी की परिवहन शक्ति कम होने लगती है जिससे वह अवसादी का जमाव करने लगती है। जिससे डेल्टा का निर्माण होता है।
2-भूमिगत जल प्रक्रम (Under Ground Water System)
धरातल के नीचे चट्टानों के छिद्रों और दरारों में स्थित जल को भूमिगत जल कहते हैं। भूमिगत जल से बनी स्थलाकृतियों को कार्स्ट स्थलाकृतियाँ कहते हैं। भूमिगत जल द्वारा निर्मित स्थल रूप निम्नलिखित प्रकार के होते हैं।
a-घोलरंध्र (Sink Holes)
जल की घुलनशील क्रिया के कारण सतह पर अनेक छोटे-छोटे छिद्रों का विकास हो जाता है। जिन्हें घोल रन्ध्र कहते हैं। गहरे घोलरंध्रों को विलयन रंध्र कहते हैं। तथा विस्तृत आकार वाले छिद्रों को "डोलाइन" कहते हैं, जो कई घोलरंध्रों के मिलने से बनता है। जब निरन्तर घोलीकरण के फलस्वरूप कई डोलाइन एक वृहदाकार गर्त का निर्माण करते हैं। तब उसे यूवाला कहते हैं। कई यूवाला के मिलने से अत्यन्त गहरी खाइयों का निर्माण होता है। इन विस्तृत खाइयों को पोल्जे या राजकुण्ड कहते हैं। विश्व का सबसे बड़ा पोल्जे पश्चिमी वालकन क्षेत्र (यूरोप) में स्थित "लिवनो पोल्जे" है।
जब घुलनशील क्रिया के फलस्वरूप ऊपरी सतह अत्यधिक ऊबड़-खाबड़ तथा पतली शिखरिकाओं वाली हो जाती है। तो इस तरह की स्थलाकृति को अवकूट या लैपीज कहते हैं।
c-गुफा (Caverns)
भूमिगत जल के अपरदन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों में सबसे महत्वपूर्ण स्थलाकृति गुफा या कन्दरा है। इनका निर्माण घुलनशील क्रिया तथा अपघर्षण द्वारा होता है। कन्दराएँ ऊपरी सतह से नीचे एक रिक्त स्थान के रूप में होती हैं। इनके अन्दर निरन्तर जल प्रवाह होता रहता है। जैसे-अमेरिका की कार्ल्सबाद तथा मैमथ कन्दरा। और भारत में देहरादून में स्थित गुप्तदाम कन्दरा। कन्दराओं में जल के टपकने से कन्दरा की छत के सहारे चुने का जमाव लटकता रहता है, जिसे "स्टैलेक्टाइट" कहते हैं। तथा कन्दरा के फर्श पर चुने के जमाव से निर्मित स्तम्भ को "स्टैलेग्माइट" कहते हैं। इन दोनों के मिल जाने से कन्दरा स्तम्भ का निर्माण होता है।
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