वैदिक साहित्य का इतिहास

वैदिक साहित्य से तात्पर्य वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों एवं उपनिषदों से है। उपवेद अत्यन्त परिवर्ती होने के कारण वैदिक साहित्य के अंग नहीं माने जाते। इन्हें वैदिकोत्तर साहित्य के अन्तर्गत रखा गया है।

वैदिक साहित्य


वैदिक साहित्य को श्रुति साहित्य के नाम से जाना जाता है। ऋग्वेद,सामवेद तथा यजुर्वेद को वेदत्रयी कहा जाता है।

1-ऋग्वेद

यह सबसे प्राचीन वेद है। इस वेद से आर्यों की राजनैतिक प्रणाली एवं इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है।

ऋग्वेद अर्थात ऐसा ज्ञान जो ऋचाओं में वद्ध हो। ऋग्वेद में ऋक का अर्थ होता है-छंदोवद्ध रचना या श्लोक।

ऋग्वेद के सूक्तों में भक्ति भाव की प्रधानता है। इसमें देवताओं की स्तुति करने वाले स्त्रोतों की प्रमुखता है।
ऋग्वेद की रचना सम्भवतः सप्त सैन्धव प्रदेश में हुई। इसमें कुल 10 मण्डल, 1028 ऋचाएँ व 10580 मंत्र हैं। वेदों का संकलन महर्षि कृष्ण द्वैपायन किया। इसलिए इन्हें वेदव्यास भी कहा जाता है।
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ऋग्वेद में ज्यादातर मंत्र देव आह्वान से सम्बन्धित हैं। यज्ञ के अवसर पर जो व्यक्ति ऋग्वेद के मंत्रों का उच्चारण करता है। उसे "होतृ" कहा जाता है। ऋग्वेद में तीन पाठ मिलते हैं।

1-साकल---1017 सूक्त
2-बालखिल्य---11 सूक्त, इसे आठवें मण्डल का परिशिष्ट माना जाता है। इसमें मिली हस्तलिखित रचनाओं को "खिल" कहा जाता है।
3-वाष्कल---यह पाठ उपलब्ध नहीं है।

ऋग्वेद का दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवां, छटवां व सातवां मण्डल सर्वाधिक प्राचीन हैं। जबकि पहला, आठवां, नौवां व दसवाँ मण्डल परवर्ती काल के हैं।

ऋग्वेद में दसवाँ मण्डल सबसे बाद में जोड़ा गया। इसमें पुरुष सूक्त का वर्णन मिलता है। शूद्रों का सर्वप्रथम उल्लेख इसी मण्डल में मिलता है।

 9वें मण्डल में सोम का उल्लेख मिलता है। इसमें 114 मंत्रों को सोम देवता का समर्पित किया गया है। ऋग्वेद के तीसरे मण्डल में विश्वामित्र द्वारा रचित गायत्री मंत्र का उल्लेख है।

ऋग्वेद के मण्डल और उनके रचयिता

मण्डल                            रचयिता ऋषि

प्रथम              अंगिरा,दीर्घतमा,मधुच्छन्दा

द्वितीय                                   गृत्समद

तृतीय                                    विश्वामित्र

चौथा                                      वामदेव

पांचवाँ                                       अत्रि

छठां                                     भारद्वाज

सातवां                                      वशिष्ठ

आठवां                                कण्व ऋषि

नौवां                               पवमान अंगिरा

दसवाँ                   शुद्र सूक्तीय, महासूक्तीय

ऋग्वेद के दो ब्राह्मण ग्रंथ हैं--ऐतरेय तथा कौषीतकी

ऐतरेय के संकलन कर्ता महिदास थे। इसमें राज्याभिषेक के विधि विधानों तथा सोमयज्ञ का विस्तृत वर्णन मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण में समुद्र शब्द का उल्लेख मिलता है।

वेदों के उपवेद

कौषीतकी ब्राह्मण के संकलन कर्ता कुषितक थे। इसे शंखायन ब्राह्मण भी कहा जाता है। इसमें विभिन्न यज्ञों का वर्णन मिलता है।
ऋग्वेद के आरण्यक--ऐतरेय तथा कौषीतकी
ऋग्वेद के उपनिषद--ऐतरेय तथा कौषीतकी
ऋग्वेद का उपवेद---धनुर्वेद

2-सामवेद

साम शब्द का अर्थ होता है--गान। सामवेद में संकलित मंत्रों को देवताओं की स्तुति के समय गाया जाता है। इसमें कुल 1549 ऋचाएँ हैं। जिनमें 75 के अतिरिक्त शेष सभी ऋग्वेद से ली गयी हैं। सामवेद के मंत्रों का गायन करने वाला व्यक्ति "उद्गाता" कहलाता है।

सामवेद की तीन प्रमुख शाखायें हैं-कौथुम, जैमिनीय व राणायनीय। सामवेद में मुख्य रूप से "सविता या सूर्य" का वर्णन किया गया है। भारतीय संगीत के इतिहास के क्षेत्र में सामवेद का महत्वपूर्ण योगदान है।

सामवेद के दो ब्राह्मण हैं-ताण्ड्य तथा जैमिनीय। ताण्ड्य ब्राह्मण बहुत बड़ा है। इसलिए इसे महाब्राह्मण भी कहते हैं। जैमिनीय ब्राह्मण में यज्ञ सम्बन्धी कर्मकांडों का वर्णन है।

सामवेद के आरण्यक--जैमिनीय आरण्यक तथा छांदोग्य आरण्यक

सामवेद के उपनिषद

छांदोग्य उपनिषद एवं जैमिनीय उपनिषद। छांदोग्य उपनिषद सबसे प्राचीन उपनिषद माना जाता है। देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख सर्वप्रथम इसी में मिलता है।

3-यजुर्वेद

यह एक कर्मकाण्डीय वेद है। इसमें अनेक प्रकार के यज्ञों को सम्पन्न करने की विधियों का उल्लेख किया गया है। इसमें कुल 1990 मंत्र संकलित हैं। यजुर्वेद के कर्मकांडों को सम्पन्न कराने वाले पुरोहित को "अध्वर्यु" कहा जाता है। यह वेद गद्य तथा पद्य दोनों में लिखा गया है। यजुर्वेद के दो मुख्य भाग हैं।

कृष्ण यजुर्वेद

इसमें छंदोबद्ध मंत्र तथा गद्यात्मक वाक्य हैं। इसकी चार शाखायें हैं-काठक संहिता, कपिष्ठल संहिता, मैत्रेयी संहिता व तैत्तिरीय संहिता। कृष्ण यजुर्वेद के ब्राह्मण का नाम तैत्तिरीय ब्राह्मण हैं।

शुक्ल यजुर्वेद

इसमें केवल मंत्रों का समावेश है। इसे वाजसनेयी संहिता भी कहते हैं। इसकी दो शाखायें हैं-काण्व तथा माध्यदिन। शुक्ल यजुर्वेद का एक ब्राह्मण शतपथ ब्राह्मण हैं। यह सबसे प्राचीन तथा सबसे बड़ा ब्राह्मण है। इसके लेखक महर्षि याज्ञवल्क्य हैं।
यजुर्वेद के आरण्यक-- वृहदारण्यक, तैत्तिरीय आरण्यक, शतपथ आरण्यक

यजुर्वेद के उपनिषद-- वृहदारण्यक उपनिषद, कठोपनिषद, ईशोपनिषद, श्वेताश्वतर उपनिषद, मैत्रायण उपनिषद व महानारायण उपनिषद।

यम और नचिकेता संवाद का संकलन कठोपनिषद में मिलता है। इस उपनिषद में आत्मा को पुरुष कहा गया है। याज्ञवल्क्य और गार्गी संवाद वृहदारण्यक उपनिषद में मिलता है।

4-अथर्ववेद

इस वेद की रचना अथर्वा ऋषि द्वारा की गयी। अतः अथर्वा ऋषि के नाम पर ही इस वेद को अथर्ववेद कहते हैं। इस वेद के दूसरे दृष्टा अंगिरस ऋषि थे। अतः इसे अथर्वांगिरस वेद भी कहते हैं।

यज्ञ में कोई बाधा आने पर उसका निवारण अथर्ववेद द्वारा ही किया जाता था। अतः इसे ब्रह्मवेद या श्रेष्ठवेद भी कहा गया। अथर्ववेद के मंत्रों का उच्चारण करने वाले पुरोहित को ब्रह्म कहा जाता था। चार वेदों में सर्वाधिक लोकप्रिय यही वेद है।

अथर्ववेद में 20 अध्याय, 731 सूक्त तथा 6000 मंत्र है। इस वेद ने ब्रह्म ज्ञान, औषधि प्रयोग, तन्त्र मन्त्र, भूत प्रेत व जादू-टोना आदि का वर्णन है। अथर्ववेद में मगध और अंग का उल्लेख सुदूरवर्ती प्रदेशों के रूप में किया गया है।

इसमें सभा और समिति को राजा की दो पुत्रियां कहा गया है। इस वेद में राजा "परीक्षित" का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद की दो अन्य शाखायें हैं-शौनक और पिप्पलाद।

अथर्ववेद का एकमात्र ब्राह्मण "गोपथ ब्राह्मण" है।
आरण्यक-- अथर्ववेद का कोई आरण्यक नहीं है।

उपनिषद-- मुण्डकोपनिषद, माण्डूक्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद

भारत का प्रसिद्ध आदर्श वाक्य "सत्यमेव जयते" मुण्डकोपनिषद से लिया गया है। माण्डूक्योपनिषद सभी उपनिषदों में सबसे छोटा है।

ब्राह्मण ग्रन्थ

ये वेदों के गद्य भाग हैं। जिनके द्वारा वेदों को समझने में सहायता मिलती है। इनमें यज्ञों एवं कर्मकाण्डों के विधि विधान का वर्णन किया गया है। ब्राह्मण ग्रंथों को "ब्राह्मण साहित्य" के नाम से भी जाना जाता है। प्रत्येक वेद के अपने अपने ब्राह्मण ग्रन्थ होते हैं।

आरण्यक

आरण्यकों में दार्शनिक सिद्धान्तों एवं रहस्यात्मक विषयों का वर्णन मिलता है। आरण्यक शब्द का अर्थ होता है-वन में लिखा जाने वाला। इन्हें वन पुस्तक भी कहते हैं। ये ब्राह्मणों के उपसंहारात्मक अंश हैं।
आरण्यक कर्मयोग तथा ज्ञानमार्ग के बीच सेतु का कार्य करते हैं। आरण्यकों की कुल संख्या सात है--1-ऐतरेय आरण्यक, 2-शांखायन आरण्यक, 3-तैत्तिरीय आरण्यक, 4-मैत्रायणी आरण्यक, 5-माध्यदिन वृहदारण्यक, 6-तल्वकार आरण्यक, 7-जैमिनीय आरण्यक।

उपनिषद

 उपनिषद का शाब्दिक अर्थ--समीप बैठना होता है। अर्थात ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने के लिए गुरु के समीप बैठना। ब्रह्म विषयक होने के कारण उपनिषदों को ब्रह्मविद्या भी कहा जाता है।

ये वेदों के अन्तिम भाग हैं अतः इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है। उपनिषदों की कुल संख्या 108 है। उपनिषदों में आत्मा परमात्मा एवं संसार के सन्दर्भ में प्रचलित दार्शनिक विचारों का संग्रह मिलता है।

उत्तर वैदिक साहित्य


वेदों को सही ढंग से समझने के लिए वेदांगों की रचना हुई। वेदांग शब्द से अभिप्राय है-जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले। वेदांगों की कुल संख्या छः है।

1-शिक्षा

वैदिक स्वरों के शुद्ध उच्चारण हेतु शिक्षा शास्त्र की रचना की गई। इसे स्वनविज्ञान भी कहा जाता है। शिक्षा शास्त्र के ग्रंथ का नाम गाएलम है। इसके प्रवर्तक वामज्य थे।

2-कल्प

वैदिक कर्मकाण्डों को सम्पन्न कराने के लिए निश्चित किये गए विधि नियमों का प्रतिपादन ही कल्पसूत्र कहलाता है।

3-व्याकरण

व्याकरण का कार्य भाषा को वैज्ञानिक शैली प्रदान करना है। इसके अन्तर्गत समास एवं सन्धि के नियम, धातुओं की रचना, उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग के नियम बताये गये हैं।

4-निरुक्त

शब्दों की उत्पत्ति एवं निर्वचन बतलाने वाले शास्त्र निरुक्त कहलाते हैं।

5-छन्द

पद्यों को चरणों मे सूत्रबद्ध करने के लिए छन्द की रचना की गई। इसे चतुष्पदी वृत्त भी कहा जाता है। पिंगल द्वारा रचित छन्द शास्त्र इसका प्राचीनतम ग्रंथ है।

6-ज्योतिष

ब्रह्माण्ड एवं नक्षत्रों के विषय में भविष्यवाणी ज्योतिष का विषय है। ज्योतिष का प्रथम ग्रन्थ वेदांग ज्योतिष है।

◆उपवेद-- उपवेद वेदों से सम्बन्धित माने जाते हैं। ये चार हैं।

1-धनुर्वेद-- यह ऋग्वेद का उपवेद है। इसमें युद्ध कलाओं का वर्णन है।

2-गन्धर्ववेद-- यह सामवेद का उपवेद है। जो संगीत कला से सम्बन्धित है।

3-शिल्पवेद-- यह यजुर्वेद का उपवेद है। इससे शिल्प सम्बन्धी कला ज्ञान होता है।
4-आयुर्वेद-- यह अथर्ववेद का उपवेद है। इससे चिकित्सा सम्बन्धी ज्ञान होता है।

स्मृतियाँ

स्मृतियों को "धर्म शास्त्र" भी कहा जाता है। इन्हें हिन्दू धर्म का कानूनी ग्रंथ भी कहा जाता है। सभी स्मृतियां पद्य में लिखी गई हैं परन्तु विष्णु स्मृति गद्य में लिखी गई है। प्रमुख स्मृतियां निम्नलिखित हैं।

मनुस्मृति

इसकी रचना 200 ईसा पूर्व से 100 ई. के मध्य हुई। मनुस्मृति से उस समय के भारत के बारे में राजनैतिक, सामाजिक व धार्मिक जानकारी मिलती है। इसमें चारों वर्णों एवं जातियों का उल्लेख मिलता है। मनुस्मृति में स्त्रियों को वेद पढ़ने और छूने का अधिकार नहीं दिया गया है।

याज्ञवल्क्य स्मृति

इसकी रचना 100 ई. से  300 ई. के मध्य हुई। इस स्मृति में सर्वप्रथम स्त्रियों को सम्पत्ति का अधिकार प्रदान किया गया।

नारद स्मृति

इसका रचना काल 300 ई. से 400 ई. के मध्य माना जाता है।  इस स्मृति से गुप्त वंश के सन्दर्भ में जानकारी मिलती है। इसमें नियोग प्रथा तथा स्त्रियों के पुनर्विवाह की अनुमति दी गयी है। दासों की मुक्ति का विधान सर्वप्रथम इसी पुस्तक में मिलता है। नारद स्मृति में स्वर्ण मुद्राओं के लिए दीनार शब्द का प्रयोग किया गया है।

पुराण

प्राचीन आख्यानों से युक्त ग्रंथ को पुराण कहते हैं। पुराणों के संकलन कर्ता महर्षि लोमहर्ष या उनके पुत्र उग्रश्रवा माने जाते हैं। पुराणों की संख्या 18 है। इनमें मत्स्य पुराण सबसे प्राचीन है। पुराणों में प्राचीन राजवंशों का वर्णन है।

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