वैदिक काल का जीवन

वैदिक आर्यों का जीवन खाना बदोश व गुमक्कड़ था। ये लोग पशु पालन पर जीवन यापन करते थे। तथा भोजन के लिए शिकार पर निर्भर थे। समय के साथ इनमें स्थाई निवास की प्रवत्ति विकसित हुई। इनके समाज से जुड़ी विशेषताओं का निम्नलिखित तथ्यों के अन्तर्गत अध्ययन करते हैं।

वैदिक कालीन राजनैतिक जीवन


सर्वप्रथम जब आर्य भारत में आये तो उनका यहां के दास या दस्यु कहे जाने वाले लोगों से संघर्ष हुआ, इस संघर्ष में आर्यों को विजय मिली।

वैदिक जीवन

वैदिक काल में समाज कबीले के रूप में संगठित था, कबीले को "जन" कहा जाता था। कबीले या जन का प्रशासन कबीले का मुखिया करता था, जिसे "राजन" कहा जाता था। राजन को "जनस्यगोपा" भी कहा जाता था।
समय के साथ तक राजन का पद वंशानुगत हो गया फिर भी राजन के हाथ मे असीमित अधिकार नहीं थे। क्योंकि उसे कबीलयी संगठन की सलाह लेनी पड़ती थी।
राजन पर नियंत्रण का कार्य दो संस्थाएं सभा और समिति करती थी। समिति कबीले की आम सभा थी। इसके प्रमुख को "ईशान" कहते थे। जबकि सभा मुख्य रूप से वृद्ध जनों एवं कुलीन व्यक्तियों की संस्था थी। ये संस्थाएं कबीले के सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक मामलों पर विचार करती थीं।

ऋग्वेद में बलि शब्द का उल्लेख मिलता है, जो प्रजा द्वारा राजा को स्वेच्छा से दिया जाने वाला उपहार था। राजा इसके बदले उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेता था। इस समय किसी प्रकार की कर व्यवस्था प्रचलित नहीं थी।

दाशराज्ञ युद्ध

परुषणी नदी (रावी नदी) के तट पर यह युद्ध भरत वंश अथवा त्रित्सु राजवंश के राजा सुदास तथा दस अन्य जनों के राजाओं के बीच लड़ा गया। इस युद्ध मे सुदास विजयी रहा। इस युद्ध में दोनों तरफ से आर्य तथा अनार्य शामिल थे।

इस युद्ध का कारण भरत वंश के राजा सुदास द्वारा अपने पुरोहित विश्वामित्र को हटाकर उनकी जगह वशिष्ठ को नियुक्त करना था। अतः विश्वामित्र ने दस राजाओं को इकट्ठा कर सुदास के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। ऋग्वेद के सातवें मण्डल में दाशराज्ञ युद्ध का उल्लेख मिलता है।

कुछ समय पश्चात पराजित राज पुरुओं और भरतों के बीच मैत्री सम्बन्ध स्थापित होने से एक नवीन वंश "कुरु वंश" की स्थापना हुई।

राजा के पदाधिकारी

राजा के प्रमुख पदाधिकारियों में पुरोहित, सेनानी, ग्रामणी, सूत (रथ हाँकने वाला), कर्मरा (धातुकर्मी) होते थे। अन्य पदाधिकारियों में पुरप (दुर्गपति), स्पर्श (गुप्तचर) तथा दूत का उल्लेख मिलता है। उपस्ति एवं इभ्य नामक अधिकारी राजा के व्यक्तिगत सेवक थे।
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इनमें पुरोहित सर्वश्रेष्ठ अधिकारी होता था तथा पुरोहित का पद वंशानुगत होता था। ग्राम का सबसे प्रमुख पदाधिकारी ग्रामणी होता था। इसका कार्य सैन्य एवं प्रशासन सम्बन्धी था।

न्याय का केंद्र बिन्दु राजा होता था। वह मुख्यतः पुरोहित की सहायता से न्याय करता था।

वैदिक कालीन प्रमुख संस्थाएं


1-विदथ

यह वैदिक कालीन सबसे महत्वपूर्ण सभा थी। क्योंकि इसका उल्लेख ऋग्वेद में 122 बार मिलता है। यह सामाजिक, धार्मिक एवं सैन्य उद्देश्यों के लिए कार्य करती थी। यह आर्यों की प्राचीनतम जनसभा थी। इसकी चर्चाओं में महलायें भी भाग लेती थीं। इसमें उपज का वितरण होता था।

2-सभा

ऋग्वेद में इसका उल्लेख 8 बार मिलता है। यह श्रेष्ठ व सम्भ्रांत लोगों की संस्था थी। इसकी तुलना आधुनिक राजसभा से की जाती है।

3-समिति

ऋग्वेद में इसका उल्लेख 9 बार मिलता है। यह केन्द्रीय राजनीतिक संस्था थी। यह सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करती थी। इसे राजा को चुनने और पदच्युत करने का अधिकार होता था। इसकी तुलना आधुनिक लोकसभा से की जाती है।

वैदिक काल का सामाजिक जीवन


वैदिक समाज की सबसे छोटी इकाई गृह या कुल थी। गृह का प्रमुख गृहपति कहलाता था। कई परिवार मिलकर एक ग्राम का, कई ग्राम मिलकर एक विश का तथा कई विश मिलकर एक जन का निर्माण करते थे।

ऋग्वेद में जन शब्द का 275 बार तथा विश शब्द का 170 बार उल्लेख हुआ है। वैदिक काल में परिवार संयुक्त होते थे। नाना, दादा, नाती, पोते आदि के लिए एक शब्द "नप्तृ" का प्रयोग होता था।
वैदिक काल में विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था। वर-वधु को सम्मिलित रूप से अर्भ कहा जाता था। कन्या विदाई के समय जो उपहार एवं द्रव्य दिए जाते थे, उन्हें वहतु कहा जाता था। वैदिक काल में दो प्रकार के अन्तर्वर्णीय विवाह होते थे

1-अनुलोम विवाह---इसमें पुरुष उच्च वर्ण तथा कन्या निम्न वर्ण की होती थी।
2-प्रतिलोम विवाह---इसमें पुरुष निम्न वर्ण तथा कन्या उच्च वर्ण की होती थी।

सामान्यतः विवाह की आयु 16 से 17 वर्ष थी। विधवा विवाह, अन्तर्जातीय विवाह एवं पुर्नविवाह की संभावना का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। समाज में एक पत्नी प्रथा का प्रचलन था, किन्तु सम्पन्न लोग एक से अधिक विवाह करते थे। सम्भवतः सती प्रथा और पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।

समाज में नियोग प्रथा एवं बहुपतीत्व प्रथा का प्रचलन था। (नियोग प्रथा-- इसके अन्तर्गत पुत्र विहीन विधवा पुत्र प्राप्ति हेतु अपने देवर से सम्बन्ध स्थापित कर सकती थी।) जीवन भर कुँवारी रहने वाली लड़कियों को "अमाजू" कहा जाता था।

स्त्रियों की दशा

वैदिक समाज यद्यपि पुरुष प्रधान था लेकिन स्त्रियों की स्थिति सम्मानित थी। वे अपने पतियों के साथ यज्ञ कार्यों में सम्मिलित होती थी एवं दान दिया करती थीं। कन्याओं का उपनयन संस्कार होता था जिसके कारण वे भी पुरुषों की तरह शिक्षा प्राप्त करती थीं। लोपामुद्रा, घोषा, सिक्ता, विश्ववारा, अपाला व निवावरी आदि विदुषी स्त्रियों ने ऋग्वेद की बहुत सी ऋचाओं की रचना की है।

वर्ण व्यवस्था

ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त में वर्ण व्यवस्था का पहली बार उल्लेख मिलता है, जिसमें एक विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैर से शूद्र की उत्पत्ति दिखाई गई है।

इस प्रकार शूद्र शब्द का पहली बार उल्लेख ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में मिलता है। ऋग्वेद के शेष भाग में कहीं भी वैश्य और शूद्र का वर्णन नहीं मिलता है।
ऋग्वेद में अनार्यों को अव्रत (व्रतों का पालन न करने वाले), मृद्धवाच (अस्पष्ट वाणी बोलने वाले), अनास ( चपटी नाक वाले), देवपीयु (देवताओं के निंदक) अकर्मन (कर्मकाण्ड न करने वाले) कहा गया है।

खान-पान

आर्य शाकाहारी तथा माँसाहारी दोनों प्रकार का भोजन करते थे। भोजन में दूध, दही, घी आदि का विशेष महत्व था। अन्न में यव (जौ), धान्य, उड़द एवं मूंग प्रयोग करते थे। दूध में जौ डालकर "क्षीर पकौदन" तैयार किया जाता था। जौ के सत्तू में दही डालकर "करंभ" नामक भोज्य पदार्थ बनाया जाता था।

पेय पदार्थ में सोमरस का पान करते थे। ऋग्वेद के नवें मण्डल में सोम की स्तुति में कई सूक्त मिलते हैं। माँसाहारी भोजन में मुख्यतः भेड़-बकरी का मांस प्रयोग करते थे।

गाय को "अघन्या" माना जाता था। ऋग्वेद में नमक, चावल व मछली का उल्लेख नहीं मिलता है।

वस्त्र

वैदिक काल के लोग क्षोम, ऊन और मृग के चमड़े से निर्मित वस्त्र धारण करते थे। आर्य मुख्यतः तीन प्रकार के वस्त्र धारण करते थे।

1-नीवी (अधोवस्त्र)--शरीर के निचले हिस्से में पहना जाने वाला वस्त्र
2-वास (उत्तरीय)--शरीर के मध्य भाग में पहना जाने वाला वस्त्र
3-अधिवास (द्रापि)--शरीर के ऊपर से ढकने वाला वस्त्र जैसे-शाल।
वस्त्रों में कढ़ाई भी होती थी। पुरुष ऊष्णीय (पगड़ी) भी धारण करते थे।

आभूषण

वैदिक काल के मुख्य आभूषणों में निष्क, कुनीर एवं कर्ण शोभन का उल्लेख मिलता है। रुक्म गले में पहना जाने वाला स्वर्ण हार था। आभूषण स्त्री व पुरुष दोनों धारण करते थे। ऋग्वेद में चाँदी का उल्लेख नहीं मिलता है। जबकि अयस शब्द ताँबे या काँसे के लिए प्रयुक्त हुआ है।

मनोरंजन

मनोरंजन के साधनों में मुख्य साधन संगीत था। वे वाद्य संगीत व नाच गाना पसन्द करते थे। इसके बाद रथदौड़, घुड़दौड़, द्युत क्रीड़ा व आखेट को महत्व दिया जाता था।

दास-प्रथा

वैदिक काल में दास प्रथा विद्यमान थी। ऋग्वेद में स्त्री और पुरुष दासों का उल्लेख मिलता है। पुरोहितों को दक्षिणा में दास दिये जाने की बात बार बार आयी है।

वैदिक काल का आर्थिक जीवन


वैदिक आर्यों का प्रारम्भिक जीवन अस्थाई था। अतः उनके जीवन में कृषि की अपेक्षा पशुपालन का अधिक महत्व था। पशुओं में गाय की सर्वाधिक महत्ता थी। गाय की गणना सम्पत्ति में की जाती थी। ऋग्वेद में 176 बार 'गो' शब्द का उल्लेख मिलता है।
गाय का प्रयोग मुद्रा के रूप में भी होता था। गाय को अघन्या (न मारे जाने योग्य), अष्टकर्णी आदि नामों से पुकारा जाता था। ऋग्वेद में अवि (भेड़), अजा (बकरी) का कई बार जिक्र हुआ है। गव्य एवं गव्यति शब्द चारागाह के लिए प्रयुक्त किये जाते थे।

गाय के अलावा दूसरा प्रमुख पशु घोड़ा था। घोड़े का प्रयोग मुख्यतः रथों में होता था। हाथी, बाघ, बत्तक व गिद्ध से आर्य लोग अपरिचित थे।

पणि नामक व्यापारी पशुओं की चोरी करने के लिए कुख्यात था। एक अन्य प्रकार के व्यापारी "वृबु" का उल्लेख भी मिलता है। जो दानशील थे।

कृषि

वैदिक काल में पशुचारण की तुलना में कृषि का स्थान गौड़ था। ऋग्वेद में कृषि का उल्लेख मात्र 24 बार ही हुआ है। वैदिक काल में कृषि से सम्बन्धित निम्नलिखित शब्दों का प्रयोग किया जाता था।

क्षेत्र--जुते हुए खेत को कहा जाता था।
उर्वरा--उपजाऊ भूमि को कहा जाता था।
लांगन--यह शब्द हल के लिए प्रयोग किया जाता था।
करीष--गोबर की खाद के लिए
सीता--हल से बनी नालियों के लिये
वृक--बैल के लिए प्रयोग किया जाता था।
अवत--कूपों के लिए
पर्जन्य--बादल के लिए
ऊर्दर--अनाज नापने वाले पात्र के लिए

उद्योग

ऋग्वेद में बढ़ई, बुनकर, चर्मकार,कुम्हार आदि शिल्पियों का उल्लेख मिलता है। अयस शब्द का प्रयोग ताँबे या काँसे के लिए किया जाता था। ऋग्वेद में बढ़ई को तक्षण तथा धातुकर्मी को कर्मार कहा गया है। हिरण्य एवं स्वर्ण शब्द का प्रयोग सोने के लिए किया जाता था। बसोवाय नामक वर्ग कपड़ा बुनने का कार्य करता था।

कपड़े की बनाई करघे से की जाती थी। करघी को तसर, ताना को ओतु तथा बाना को तन्तु कहा जाता था। निष्क सोने का आभूषण होता था।

आर्यों के सामाजिक जीवन में रथों का अधिक महत्व होने के कारण "तक्षा" की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ी हुई थी। ऋग्वेद में कपास व चाँदी का उल्लेख नहीं मिलता।

व्यापार

वैदिक काल में व्यापार वस्तु विनिमय पर आधारित था। वस्तु विनिमय के साथ गाय, घोड़े एवं स्वर्ण से भी क्रय विक्रय किया जाता था। विनिमय के माध्यम के रूप में "निष्क" का प्रयोग होता था। निष्क प्रारम्भ में हार जैसा कोई स्वर्ण आभूषण था जो कालान्तर में सिक्के के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऋग्वैदिक काल में व्यापार करने वाले अनार्य व्यापारियों को पणि कहा जाता था। जो गाय चुरा लेते थे।
ऋग्वेद में समुद्र का स्पष्ट उल्लेख न होने के कारण उनके वैदेशिक व्यापार का पता नहीं चल पाता। फिर भी एक स्थान पर अश्विन कुमार द्वारा सौ पतवारों वाली नावों द्वारा तुंग के पुत्र भुज्यु को बचाने का उल्लेख मिलता है। कुल मिलाकर वैदिक कालीन अर्थ व्यवस्था ग्रामीण थी।

वैदिक कालीन धार्मिक जीवन


ऋग्वैदिक आर्यों का प्रारम्भिक जीवन कबायली था। अतः उनके देवता भी प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक थे। इस समय बहुदेववाद का प्रचलन था। ऋग्वैदिक आर्यों की देवमण्डली निम्न रूपों में विभाजित थी।

1-आकाश के देवता-- सूर्य, वरुण, पूषन, विष्णु, उषा, अश्विन, सविता, मित्र, अदिति आदि।
2-अन्तरिक्ष के देवता-- इन्द्र, मरुत, रुद्र, पर्जन्य, आप आदि।
3-पृथ्वी के देवता-- अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, सरस्वती, अरण्यानी आदि।

इन्द्र

यह ऋग्वैदिक आर्यों का सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रतापी देवता था। इन्हें पुरन्दर अर्थात किलों को तोड़ने वाला कहा गया है। इन्द्र को युद्ध का नेता माना जाता था। इन पर 250 सूक्त लिखे गए हैं।

अग्नि

अग्नि देवता का स्थान इन्द्र देवता के बाद आता था। ऋग्वेद में करीब 200 सूक्तों में अग्नि का जिक्र किया गया है। अग्नि देवता मानवों तथा देवताओं के बीच मध्यस्थ का कार्य करता था। यह एक मात्र ऐसा देवता है जिसे आकाश, अन्तरिक्ष तथा पृथ्वी तीनों में शामिल किया गया है।

वरुण

ऋग्वैदिक देवताओं में वरुण का तीसरा स्थान है। जिसे समुद्र का देवता, विश्व के नियामक और शासक, सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन रात का कर्ता धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य का निर्माता के रूप में जाना जाता है।
इसके अलावा सोम को वनस्पति के देवता के रूप में, ऊषा को प्रगति एवं उत्थान के देवता के रूप में, अश्विन को विपत्तियों को हरने वाले देवता के रूप में, पूषन को पशुओं के देवता के रूप में, विष्णु को विश्व के संरक्षक एवं पालन कर्ता के रूप में तथा मरुत को आँधी तूफान के देवता के रूप में माना जाता था।

वैदिक धर्म की प्रमुख विशेषता थी-- ऋत की संकल्पना में विश्वास। ऋत एक प्रकार की नैतिक व्यवस्था थी। वरुण को ऋत का संरक्षक बताया गया है। ऋत का पालन करना पुण्य था।

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1 Comments
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  1. अच्छी जानकारी है

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