वनों का महत्व|Importance of Forests

वनों का प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से महत्व है। प्रत्यक्ष महत्व जहाँ आर्थिक रूप से लाभकारी हैं वहीं अप्रत्यक्ष महत्व के अंतर्गत पारिस्थितिक संतुलन व सतत विकास में वनों की भूमिका को शामिल किया जाता है।

वनों का प्रत्यक्ष महत्व


भारत में वनों से 4000 से अधिक किस्मों की लकड़ियां प्राप्त होती हैं। इनमें सखुआ, सागवान, शीशम, देवदार आदि इमारती लकड़ियां महत्वपूर्ण हैं। जिन देश का प्लाईवुड उद्योग, काष्ठगोला उद्योग, इमारती लकड़ी उद्योग आदि निर्भर हैं।


कागज, दियासलाई, कत्था, रेशम, लाह, बीड़ी, पत्तल, खिलौने बनाना, लकड़ी चीरना, प्लाईवुड, औषधि आदि उद्योगों के लिए कच्चा माल वनों से ही प्राप्त होता है।
पलास व कुसुम के पौधों पर लाह के कीटों तथा शहतूत के पौधों पर रेशम के कीटों का पालन किया जाता है।

वन पशुओं के लिए चारा भी उपलब्ध कराते हैं। घरेलू ईंधन का लगभग 55% अभी भी वनों से ही प्राप्त हो रहा है। कुछ जगहों पर तो पत्थर कोयले की जगह काष्ठ कोयले का उपयोग किया जाता है। जैसे- भद्रावती में लोहे को गलाने के लिए काष्ठ कोयले का प्रयोग किया जा रहा है।

वनों से सम्बन्धित उद्योग धंधों से लाखों लोगों को रोजगार मिलता है। वन देश की अर्थ व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

वनों से निम्नलिखित आर्थिक महत्व के पेड़-पौधे प्राप्त होते हैं। जिनका उपयोग मानव विभिन्न कार्यों में करता है।

श्वेत सनोवर (Silver Fir)

ये नुकीली पत्ती वाले वृक्ष हैं, जो 2200 से 3000 मीटर की ऊंचाई तक पश्चिमी हिमालय में कश्मीर से झेलम तक और पूर्वी हिमालय में चित्राल से नेपाल तक मिलते हैं। ये वृक्ष 45 मीटर तक लम्बे तथा 7 मीटर तक मोटे होते हैं। इनका उपयोग हल्की पेटियां, पैकिंग, तख्ती, दियासलाई, कागज की लुगदी आदि में किया जाता है।

देवदार (Cedrus)

देवदार का वृक्ष 30 मीटर लम्बा तथा 10 मीटर तक मोटा होता है। यह हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले में तथा गढ़वाल हिमालय की पश्चिमी पहाड़ियों में पाया जाता है। इसकी लकड़ी साधारणतः कठोर, भूरी, सुगन्धयुक्त तथा टिकाऊ होती है। इससे सुगन्धित तेल भी निकाला जाता है।

चीड़ (Chir)

यह हिमालय में कश्मीर से भूटान तक 2500 से 3500 मीटर की ऊंचाई पर मिलता है। यह एक मध्यम कठोर लकड़ी है जो चाय की पेटियों, फर्नीचर तथा माचिस उद्योग में प्रयुक्त होती है। इससे रेजिंन तथा बिरोजा (तर्पेन्टाइन) भी प्राप्त होता है।

नीला पाइन (Blue pine)

यह कश्मीर से सिक्किम तक सम्पूर्ण हिमालय में 2500 मीटर की ऊंचाई पर उगता है। इसकी लकड़ी मध्यम कठोर होती है जो गृह निर्माण, फर्नीचर तथा रेलों के स्लीपर बनाने में प्रयुक्त होती है। राल (रेजिंन) तथा बिरोजा इससे भी प्राप्त किया जाता है।

स्प्रूस (Spruce)

यह पश्चिमी हिमालय में 2100 से 3600 मीटर की ऊंचाई पर उगता है। इसकी कोमल लकड़ी निर्माण कार्य, कैबिनेट, पैकिंग के डिब्बे तथा लुग्दी बनाने में प्रयुक्त होती है।

साइप्रस (Cypress)

यह अधिकांशतः उत्तराखंड में मिलता है। इसकी टिकाऊ लकड़ी फर्नीचर में प्रयुक्त होती है।

सागौन (Teak)

सागौन का वृक्ष तमिलनाडु, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिमी घाट, नीलगिरि की पहाड़ियों के निचले ढालों तथा उड़ीसा में पाया जाता है। इसका मुख्य क्षेत्र महाराष्ट्र का उत्तरी कन्नड़ तथा मध्य प्रदेश है। इसकी लकड़ी बहुत दृढ़ और सुन्दर तथा टिकाऊ होने के कारण इससे रेलगाड़ी के डिब्बे, फर्नीचर, दरवाजे व जहाज आदि बनाये जाते हैं।

साल (Sal)

साल के वन भारत में लगभग एक लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में फैले हैं। इनसे प्राप्त लकड़ी भूरे रंग की कठोर और टिकाऊ होती है। इसका प्रयोग रेल के डिब्बों, लकड़ी की पेटियों, फर्नीचर, जहाज तथा घरेलू काम में होता है।

चन्दन (Sandal wood)

चन्दन का वृक्ष मुख्यतः दक्षिणी भारत के शुष्क भागों (कर्नाटक, तमिलनाडु) में पाया जाता है। इसकी लकड़ी कठोर व ठोस होती है तथा इसका रंग पीला और भूरा होता है। इससे तेज सुगन्ध आती है। इसी कारण इसका मूल्य और महत्व है।

सुन्दरी (Sundri)

सुन्दरी का वृक्ष गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा में बहुतायत में मिलता है। इसकी लकड़ी कठोर और ठोस होती है। इससे नाव, मेज, कुर्सियां, खम्भे आदि बनाये जाते हैं।

पलास (Palash)

यह मुख्यतः दक्षिण-पूर्वी राजस्थान तथा छोटा नागपुर के पठार में उगता है। इसकी पत्तियों पर लाख के कीड़े पाले जाते हैं।

रोज वुड (Rose wood)

यह पश्चिमी घाट के ढालों पर, उड़ीसा के कुछ भागों, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में उगता है। इसकी कठोर तथा सूक्ष्म रेशों वाली लकड़ी फर्नीचर, वाहन, पहिये, फर्श आदि बनाने में व्यापक रूप में प्रयुक्त होती है। यह एक मूल्यवान सजावटी लकड़ी है।

एबोनी (Ebony)

यह दक्कन, कर्नाटक, कोयम्बटूर, मालाबार, कोचि तथा त्रावणकोर में मिलता है। यह एक मूल्यवान तथा सजावटी लकड़ी है जिसका प्रयोग सजावटी नक्काशी तख्ते तथा संगीत-वाद्यों के बनाने में होता है।

तेन्दू (Tendu)

यह उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा दक्षिण पूर्वी राजस्थान में मिलता है। इसकी पत्तियां बीड़ी लपेटने में काम आती हैं।

लाख (Shellac)

यह केरिया लक्का नामक कीड़े की राल है जो पलास, पीपल, कुसुम, सिस्सू, गूलर, शिशिर, बरगद आदि वृक्षों पर पलता है। ये वृक्ष झारखंड में व्यापक रूप से मिलते हैं। झारखंड से देश का लगभग 60% लाख प्राप्त होता है। लाख का प्रयोग औषधि बनाने, रेशम रंगने, चूड़ियां, पेन्ट, मोम, इलेक्ट्रिकल इन्सुलेशन, स्पिरिट आदि बनाने में होता है।

रेजिन (Resin)

यह चीड़ के वृक्षों से एकत्रित की जाती है। इसका उपयोग लिनोलियम, सीलिंग वैक्स, ऑयल क्लॉथ, स्याही, स्नेहक पदार्थ, पेन्ट आदि बनाने में किया जाता है।
टैनिन (Tennin)

चमड़े की खालें बनाने में टैनिन का प्रयोग किया जाता है। ये पदार्थ मैंग्रोव, वैटल, अर्जुन, चेस्टनट, कैसुएरिना आदि वृक्षों की छाल से प्राप्त होते हैं।

कत्था (Kattha)

यह खैर वृक्ष से प्राप्त होता है जो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, बिहार, हिमाचल प्रदेश आदि में व्यापक रूप से पाया जाता है।

वनों का अप्रत्यक्ष महत्व


वनों का अप्रत्यक्ष महत्व पारिस्थितिक संतुलन को बनाये रखने में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। वन वायुमण्डल में ऑक्सीजन की उपलब्धता को बढ़ाता है एवं विषैली गैसों की मात्रा को कम करता है।
वन मृदा अपरदन को रोकने में सहायक हैं एवं मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता को भी बनाये रखते हैं। ये भूमिगत जल स्तर को बढ़ाते हैं एवं नदियों की गति को कम करते हैं, जिससे सूखा व बाढ़ के नियंत्रण में मदद मिलती है।

वन जंगली जीव जंतुओं के प्राकृतिक आश्रय हैं एवं जैव विविधता के विशाल भण्डार हैं।

वनों की समस्या को दूर करने के प्रयास


वर्तमान समय में वनों की समस्याओं को दूर करने के लिए विविध उपाय किए जा रहे हैं। वनों की वैज्ञानिक व चक्रीय कटाई पर बल दिया जा रहा है साथ ही साथ यह ध्यान रखा जा रहा है कि अपरिपक्व वृक्षों की कटाई नहीं हो।

वृक्षारोपण बड़े पैमाने पर किया जा रहा है इसमें ऐसे वृक्षों का समूह लगाया जा रहा है जो आर्थिक रूप से अधिक महत्वपूर्ण हैं।

वन क्षेत्रों को सुलभ यातायात से सम्बद्घ किया जा रहा है तथा इनके औद्योगिक उपयोगों को बढ़ाने पर बल दिया जा रहा है।
वनों के बारे में एक बेहतर दृष्टिकोण विकसित करने के लिए प्रयास हो रहे हैं। इस हेतु कर्मचारियों व स्थानीय लोगों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

वन विद्यालयों तथा वन विश्वविद्यालयों की स्थापना की जा रही है। वनारोपण व सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों के माध्यम से वन क्षेत्र को बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है।

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