भारत में सिंचाई के साधन|Irrigation in India

भारत में सिंचाई के साधनों के अंतर्गत नहरें, कुएं, नलकूप, डीजल पंपसेट, तालाब आदि आते हैं। आजकल ड्रिल और स्प्रिंकलर सिंचाई भी की जा रही है।


वर्तमान समय में देश में सिंचाई का प्रमुख साधन नलकूप हैं। दूसरे स्थान पर सिंचाई का प्रमुख साधन नहरें हैं। इसके बाद कुएं तथा तालाब का नम्बर आता है-- नलकूप > नहरें > कुएं

भारत में सिंचाई की परियोजनाएं


भारत में सिंचाई के साधनों को मुख्य रूप से तीन वर्गों में बांट कर देखा जा सकता है।
लघु सिंचाई परियोजनाएं

इस वर्ग में उन सिंचाई परियोजनाओं को सम्मिलित किया जाता है जिनसे 2 हजार हेक्टेअर से कम क्षेत्र की सिंचाई होती है। इस वर्ग की परियोजनाओं में कुएं, नलकूप, पम्पसेट, ड्रिल सिंचाई, तालाब, एनीकेट, स्प्रिंकलर तथा छोटी-छोटी नहरों को सम्मिलित किया जाता है। भारत की कुल सिंचाई आवश्यकता का लगभग 62% लघु सिंचाई परियोजनाओं द्वारा पूर्ति होती है।

राष्ट्रीय लघु सिंचाई मिशन

देश में सिंचित क्षेत्र के संवर्धन की दिशा में लघु सिंचाई के बढ़ते महत्व को देखते हुए केन्द्र सरकार ने जनवरी 2006 में एक सिंचाई योजना शुरू की। इस योजना को जून 2010 में राष्ट्रीय लघु सिंचाई मिशन नाम देकर मिशन में बदल दिया गया। राष्ट्रीय लघु सिंचाई मिशन कृषि में जल उपयोग की क्षमता को बढ़ाने के उपायों पर कार्य करता है।

मध्यम सिंचाई परियोजनाएं

इस वर्ग में उन परियोजनाओं को सम्मिलित किया जाता है जिनसे 2 हजार हेक्टेअर से अधिक किन्तु 10 हजार हेक्टेअर से कम क्षेत्र की सिंचाई होती है।देश में विकसित मध्यम आकार की नहरें इसी सिंचाई योजना के अंतर्गत आती हैं।

वृहत सिंचाई परियोजनाएं

इस वर्ग में उन सिंचाई परियोजनाओं और कार्यक्रमों को रखा गया है जिनके अंतर्गत 10 हजार हेक्टेअर से अधिक कृषि योग्य क्षेत्र की सिंचाई होती है। इस वर्ग में बड़ी नहरें तथा बहुउद्देशीय परियोजनाएं सम्मिलित हैं। इसके लिए नदियों पर बड़े-बड़े बांध बनाये जाते हैं। वृहत तथा मध्यम सिंचाई परियोजनाओं से देश की 38% सिंचाई की आवश्यकता पूरी होती है।

भारत में सिंचाई की आवश्यकता


●भारत की स्थित उपोष्ण जलवायु क्षेत्र में पायी जाती है। देश का अधिकांश क्षेत्र उच्च तापीय मण्डल में पड़ता है। ऊंचे तापमान के कारण अधिक वाष्पीकरण तथा वाष्पोत्सर्जन होता है। जिससे बोई गई फसलों नमी की कमी हो जाती है। इस कमी को पूरा करने के लिए सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।

●भारतीय कृषि मानसून पर अत्यधिक निर्भर करती है। जिस वर्ष मानसून ठीक नहीं रहता उस वर्ष फसलें नष्ट हो जाती हैं। अतः कृषि की नियमितता व उत्पादकता बनाये रखने के लिए सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।

●भारत में वर्षा का वितरण काफी असमान है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में वर्षा की न्यूनता के कारण सिंचाई आवश्यक हो जाती है।

●कृषि भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के लिए उच्च गुणवत्ता वाले बीजों व उर्वरकों के प्रयोग की आवश्यकता होती है। यह तभी सम्भव है जब सिंचाई की व्यवस्था हो।

Important Questions

Q-प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना कब प्रारम्भ की गयी?
@-कृषि की मानसून पर निर्भरता कम करने के लिए और हर खेत तक सिंचाई सुविधा पहुँचाने के उद्देश्य से 1 जुलाई 2015 को प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना को शुरू किया गया।

Q- "3 वाटरशेड विकास कार्यक्रम" क्या हैं?
@- 1 अप्रैल 2008 तक भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा 3 वाटरशेड विकास कार्यक्रम कार्यान्वित किये गये। ये कार्यक्रम हैं- 
●समेकित बंजर भूमि विकास कार्यक्रम
●सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम
●मरुभूमि विकास कार्यक्रम
फरवरी 2009 में इन कार्यक्रमों को एक व्यापक कार्यक्रम के अंतर्गत लाया गया जिसे "समेकित जल संभर प्रबंधन कार्यक्रम" के नाम से जाना जाता है।

Q-समेकित जलसंभर प्रबंधन कार्यक्रम के प्रमुख उद्देश्य क्या हैं?
@-इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य मृदा, जल व वनस्पति जैसे प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल, संरक्षण और विकास करके पारिस्थितिकी संतुलन को बहाल करना है। जिससे कि मृदा उर्वरता ह्रास पर रोक लग सके, प्राकृतिक वनस्पति का पुनर्सृजन हो सके, वर्षा जल का एकत्रीकरण हो सके तथा भूजल स्तर में सुधार हो सके।

Q-प्रायद्वीपीय भारत में सिंचाई का मुख्य साधन क्या है?
@-प्रायद्वीपीय भारत में सिंचाई का मुख्य साधन तालाब है। प्राचीन काल से ही इस क्षेत्र में तालाबों से सिंचाई होती रही है। तालाबों में वर्षा का पानी एकत्रित करके उसका उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता रहा है। प्रायद्वीपीय क्षेत्र की भूमि चट्टानी होने के कारण यहां नहरों और कुओं का निर्माण करना आसान नहीं होता है। इसके अलावा प्रायद्वीपीय भारत की नदियां मौसमी होती हैं। जिसके कारण नहरों में पानी का अभाव रहता है।
Q-ड्रिप सिंचाई क्या है?
@-सिंचाई की वह विधि जिसमें सिंचाई के जल को पौधे के जल क्षेत्र में बूंद-बूंद करके पहुँचाया जाता है। ड्रिप सिंचाई कहलाती है। इसे बूंद-बूंद सिंचाई (Trickle Irrigation) भी कहते हैं। इस विधि का विकास इजरायल में किया गया था।

सिंचाई की यह विधि ऊसर, रेतीली मृदा व बागों में सिंचाई के लिए अत्यन्त उपयोगी है। इस विधि का उपयोग मुख्यतः अंगूर, नीबू, अन्य फल वृक्षों व सब्जियों में किया जाता है।

इस विधि में P.V.C. की पाइप लाइनें खेत में बिछाई जाती हैं और आवश्यकता अनुसार जगह जगह नोजिल लगाये जाते हैं। इनसे जल निकलकर मृदा को धीरे-धीरे नम करता है।

●ड्रिप विधि के लाभ

•जल बचत (35 से 75% तक),
•पौधों के आकार एवं उत्पादकता में वृद्धि,
•ऊर्जा एवं श्रम की बचत,
•कम उपजाऊ मिट्टी के लिए उपयुक्त,
•खारे पानी का उपयोग संभव,
•खर-पतवार की वृद्धि पर नियंत्रण,
•उर्वरक क्षमता में वृद्धि,
•मृदा अपरदन में कमी,
•भूमि तैयारी की आवश्यकता नहीं,
•रोग एवं कीट समस्या न्यूनतम।
●ड्रिप विधि से हानियाँ

•मृदा में लवणता समस्याओं की वृद्धि,
•डिजाइन एवं संचालन के लिए तकनीकी कौशल की आवश्यकता,
•अधिक धन की आवश्यकता,
•अधिक ऊंची-नीची भूमि के लिए अनुपयुक्त।

Q-स्प्रिंकलर या छिड़काव सिंचाई विधि क्या है?
@-इस विधि में हवा में फव्वारे के रूप में पानी का छिड़काव किया जाता है जो मृदा की सतह पर कृत्रिम वर्षा के रूप में गिरता है। वर्षा धीरे-धीरे की जाती है। जिससे कि पानी कहीं पर जमा न हो पाये।

यह एक प्रचलित विधि है जिसके द्वारा पानी की 30 से 70% तक बचत होती है। यह विधि रेतीली मृदा, ऊंची-नीची जमीन और जहाँ पानी की उपलब्धता कम है वहाँ प्रयोग की जा सकती है।
इस विधि के द्वारा कवकनाशी, कीटनाशी तथा उर्वरकों का प्रयोग सुगमता से किया जा सकता है।रेगिस्तानी क्षेत्रों में यह सर्वोत्तम विधि के रूप में विकसित हुई है।

Q-PWP सिंचाई क्या इंगित करती हैं।
@-परमानेंट विल्टिंग प्वाइंट-PWP जमीन के अन्दर पानी की उस मात्रा को इंगित करता है, जिसे पौधे अपने उपयोग के लिए प्राप्त नहीं कर पाते। इस अवस्था में पौधे मुरझाने लगते हैं। ऐसी स्थिति में सिंचाई अति आवश्यक हो जाती है। अतः Permanent Wilting Point सिंचाई जीवन रक्षक या बचाव सिंचाई को इंगित करती है।

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