सल्तनत कालीन प्रशासनिक व्यवस्था|Sultanate administrative system

सल्तनत कालीन प्रशासनिक व्यवस्था पूर्ण रूप से इस्लामिक धर्म पर आधारित थी। इस काल में भारत में एक नई प्रशासनिक व्यवस्था की शुरुआत हुई जो प्रमुख रूप से अरबी-फारसी पद्धित पर आधारित थी।

 उलेमाओं की प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। उलेमाओं ने विभिन्न परिस्थितियों और देश में उपस्थित समस्याओं के समाधान के लिए कुरान व हदीश के आधार पर जो व्याख्याएं दीं उन्हें "शरीयत" कहा गया।

 इस्लाम धर्म के अनुसार शरीयत प्रमुख है खलीफा व सुल्तान इसके अधीन हैं। इनका कर्तव्य केवल धर्म के अनुसार शासन करना है।

 खलीफा इस्लामिक संसार का पैगम्बर के बाद सर्वोच्च नेता होता था। प्रत्येक सुल्तान के लिए यह आवश्यक होता था कि खलीफा उसे मान्यता दे। फिर भी दिल्ली सल्तनत के तुर्क मुसलमानों ने खलीफा को नाममात्र का ही प्रधान माना।

 दिल्ली सल्तनत के अधिकांश सुल्तानों ने अपने को खलीफा का "नाइब" माना। किन्तु अलाउद्दीन खिलजी ने अपने को खलीफा का नाइब नहीं माना। मुबारक खिलजी पहला ऐसा सुल्तान था जिसने स्वयं को खलीफा घोषित किया।
सल्तनत कालीन प्रशासनिक प्रमुख

 दिल्ली सल्तनत को तुर्क-अफगान शासकों ने एक इस्लामी राज्य घोषित किया था। वे अपने साथ ऐसे राजनैतिक सिद्धान्त लाये थे जिसमें राज्य के राजनैतिक प्रमुख और धार्मिक प्रमुख में कोई भेद नहीं समझा जाता था। दिल्ली सल्तनत के प्रशासनिक प्रमुख निम्नलिखित थे।
1-सुल्तान

 सुल्तान की उपाधि तुर्क शासकों द्वारा प्रारम्भ की गयी। महमूद गजनवी पहला स्वतन्त्र शासक था जिसने अपने आपको सुल्तान की उपाधि से विभूषित किया। उसने यह उपाधि समारिदों की प्रभुसत्ता से स्वतंत्र होने के पश्चात धारण की।

 सुल्तान केन्द्रीय प्रशासन का मुखिया होता था। राज्य की पूरी शक्ति उसमें केन्द्रित थी। न्यायपालिका तथा कार्यपालिका पर सुल्तान का पूरा नियंत्रण होता था। वह एक धुरी था जिसके चारों ओर दिल्ली सल्तनत की समस्त प्रशासनिक संरचना घूमती थी।

 सल्तनत काल में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था, परन्तु सुल्तान को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने का अधिकार था।
 सुल्तान द्वारा चुना गया उत्तराधिकारी यदि अयोग्य है तो ऐसी स्थिति में सरदार नये सुल्तान का चुनाव करते थे। कभी कभी शक्ति के प्रयोग से भी सिंहासन पर अधिकार किया जाता था।

 दिल्ली सल्तनत में सुल्तान पूर्ण रूप से निरंकुश होता था। उसकी सम्पूर्ण शक्ति सैनिक बल पर निर्भर करती थी। सुल्तान सेना का सर्वोच्च सेनापति एवं न्यायालय का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था।

 सुल्तान शरीयत के अधीन कार्य करता था। सुल्तान की मंत्रिपरिषद को "मजलिस-ए-खलवत" कहा जाता था। 

2-खलीफा

 खलीफा समस्त इस्लामी राज्य का प्रधान माना जाता था। चूंकि दिल्ली सल्तनत इस्लामी राज्य का एक भाग थी। इसलिए सुल्तानों ने अपने खुत्बों और सिक्कों पर खलीफा को स्थान दिया।
 दिल्ली के सुल्तान अपने को खलीफा का नाइब मानते थे। किन्तु खलीफा को दिल्ली सल्तनत की आंतरिक व बाह्म परिस्थितियों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं था। अतः वह इस्लामी जगत का नाममात्र प्रधान था।

3-अमीर

 सल्तनत काल में सभी प्रभावशाली पदों पर नियुक्त व्यक्तियों को अमीर कहा जाता था। अमीरों का प्रशासन में महत्वपूर्ण योगदान होता था। सुल्तान को शासन करने के लिए अमीरों को अपने अनुकूल किये रहना आवश्यक होता था।

 प्रायः अमीर विदेशी मूल के थे जो दो समूहों में विभाजित थे। पहला "तुर्की दास" अमीर वर्ग दूसरा गैर तुर्की (ताजिक) अमीर वर्ग।

 ताजिक अमीर वर्ग जीवकोपार्जन की तलाश में मध्य व पश्चिम एशिया से भारत आये थे। इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद अमीरों का सत्ता में हस्तक्षेप बढ़ने लगा।

मोइजुद्दीन बहराम के शासनकाल में अमीरों ने सुल्तान की शक्ति को कम करने के लिए "नायब-ए-मुमलिकात" के पद का सृजन किया था।

 बलबन व अलाउद्दीन के शासनकाल में अमीर प्रभावहीन हो गये। प्रायः नये राजवंश के सत्ता में आने के पर पुराने अमीरों को मार दिया जाता था या उन्हें छोटे पद दे दिये जाते थे।

 अमीरों का स्वर्णिम काल लोदी वंश के काल को माना जाता है। इस काल में अमीर अपने चर्मोत्कर्ष पर थे। जबकि अलाउद्दीन और बलबन का काल अमीरों का निम्नकाल था।

4-उलेमा वर्ग

 उलेमा वर्ग इस्लामी धर्माचार्यों तथा शरीयत कानून के व्याख्याकारों का एक महत्वपूर्ण वर्ग था। शासन पर इनका भी अत्यधिक प्रभाव रहता था।
 इस वर्ग के दो महत्वपूर्ण कार्य थे--पहला धार्मिक विषयों को प्रभावित करने वाले नीतिगत मामलों में सुल्तान को सलाह देना। दूसरा न्याय करना, राज्य के न्यायिक पदों पर इनका वास्तविक एकाधिकार था।

5-मंत्रिपरिषद

 सल्तनत काल में विभिन्न भागों के कुशल संचालन हेतु सुल्तान की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी। जिसे "मजलिस-ए-खलबत" कहा जाता था।

 मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए सुल्तान बाध्य नहीं होता था। वह इसकी नियुक्ति एवं पदमुक्ति स्वेच्छा से कर सकता था।

 जिस स्थान पर मंत्रिपरिषद की बैठक होती थी उसे "मजलिस-ए-खास" कहा जाता था। यहां पर सुल्तान कुछ खास लोगों को बुलाता था। जहाँ पर सभी दरबारियों, खानों, अमीरों, मालिकों और अन्य रईसों को बुलाया जाता था। उसे 'बार-ए-खास' कहा जाता था।

 बार-ए-आजम में सुल्तान राजकीय कार्यों का अधिकांश भाग पूरा करता था। यहाँ पर विद्वान, मुल्ला व काजी भी उपस्थित रहते थे।

सल्तनत कालीन केन्द्रीय प्रशासन


 सल्तनत काल में सुल्तान केन्द्रीय शासन का प्रधान होता था। प्रशासन की सम्पूर्ण शक्ति उसके हाथों में केन्द्रित थी। वह राज्य का संवैधानिक एवं व्यवहारिक प्रमुख होता था।

सल्तनत कालीन प्रमुख विभाग

 सुल्तान की सहायता के लिए केन्द्रीय स्तर पर एक मंत्रिपरिषद एवं उच्च अधिकारी होते थे। मंत्रिपरिषद में 4 मन्त्री महत्वपूर्ण होते थे। जो निम्नलिखित विभागों की देखरेख करते हैं।

1-दीवान-ए-विजारत (राजस्व विभाग)

 दीवान-ए-विजारत का अध्यक्ष वजीर अथवा प्रधानमंत्री होता था। तुगलक काल को "मुस्लिम भारतीय वजीरत" का "स्वर्णकाल" कहा जाता है। जबकि बलबन का काल इनका निम्नकाल था।
 वजीर मंत्रिपरिषद का प्रमुख होता था। उसके पास अन्य मन्त्रियों की अपेक्षा अधिक अधिकार होते थे। वह अन्य मंत्रियों के कार्यों पर नजर भी रखता था।

 सुल्तान के पश्चात केन्द्रीय प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी वजीर को ही माना जाता था। इसका मुख्य कार्य लगान बन्दोबस्त के लिए नियम बनाना, करों की दर निश्चित करना, राज्य के व्यय पर नियंत्रण रखना तथा सैनिक व्यय की देखभाल करना था।

 दिल्ली सल्तनत में वजीरों की दो श्रेणियाँ थी

वजीर-ए-तौफीद

 इसे असीमित अधिकार प्राप्त थे। यह सुल्तान के आदेश के बिना ही महत्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लेने में सक्षम होता था।

वजीर-ए-तनफीद

 इसके अधिकार सीमित थे। यह राजकीय नियमों को लागू कराता था तथा कर्मचारियों व सर्वसाधारण पर नियंत्रण रखता था।

वजीर के सहायक अधिकारी

a-नायब वजीर
 वजीर की अनुपस्थिति पर उसके स्थान पर कार्य एवं उसके सहयोगी के रूप में कार्य करता था।

b-मुशरिफ-ए-मुमालिक (महालेखाकार)
 ये प्रान्तों एवं अन्य विभागों से होने वाली आय-व्यय का लेखा-जोखा रखता था। नाजिर नामक अधिकारी इसका सहायक होता था।

c-मुस्तौफी-ए-मुमालिक (महालेखा परीक्षक)
 ये मुशरिफ-ए-मुमालिक द्वारा तैयार किये गये लेखा जोखा की जांच करता था।
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d-खजीन (खजांची)
 यह कोषाध्यक्ष के रूप में कार्य करता था।

2-दीवान-ए-अर्ज

 दीवान-ए-अर्ज विभाग की स्थापना बलबन ने की थी। उसने अहमद अय्याज को इस विभाग का पहला अध्यक्ष नियुक्त किया था। इस विभाग के अध्यक्ष को "आरिज-ए-मुमालिक" कहा जाता था।

 आरिज-ए-मुमालिक का प्रमुख कार्य सैनिकों की भर्ती करना, सैनिकों तथा घोड़ों का हुलिया रखना एवं सैन्य निरीक्षण करना था।

 आरिज-ए-मुमालिक इक्तादारों के सैनिकों का निरीक्षण करता था। इसे सैनिकों के लिए खाद्य सामग्री एवं यातायात की व्यवस्था भी करनी पड़ती थी।

 अलाउद्दीन खिलजी दीवान-ए-अर्ज विभाग पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देता था। सैनिक व्यवस्था और शासन व्यवस्था में सहायता हेतु अन्तिम तुगलक शासक नासिरुद्दीन महमूद ने "वकील-ए-सुल्तान" पद का सृजन किया था। कुछ समय बाद यह पद अस्तित्वहीन हो गया।

3-दीवान-ए-इंशा

 यह शाही सचिवालय था। जिसका प्रमुख "दबीर-ए-खास" कहलाता था। इस विभाग का प्रमुख कार्य शाही घोषणाओं एवं पत्रों का पाण्डु लेख तैयार करना था। राजकीय अभिलेख भी इसी विभाग में रखे जाते थे।

4-दीवान-ए-रिसातल

 इस विभाग के कार्यों के बारे में विद्वानों में मतभेद है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह विभाग पड़ोसी राज्यों को भेजे जाने वाले पत्रों का प्रारूप तैयार करता था तथा विदेशों में जाने वाले व देश में आने वाले राजदूतों से सम्पर्क रखता था।

 कुछ विद्वानों ने अनुसार यह विभाग धर्म से सम्बंधित था। 'सद्र' नामक अधिकारी इस विभाग का अध्यक्ष होता था।

 केन्द्रीय प्रशासन में उपर्युक्त विभागों के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रमुख विभाग एवं मंत्री थे। जो निम्नलिखित हैं।

सल्तनत कालीन विभाग और उनके अध्यक्ष

दीवान-ए-बरीद

 यह गुप्तचर विभाग था। इसका अध्यक्ष बरीद-ए-मुमालिक कहलाता था। यह राज्य का प्रमुख समाचार लेखक भी था। इसके अधीन गुप्तचर, सन्देशवाहक व डाक चौकियां होती थी। 'मुनहीयान्स' नामक गुप्तचर अधिकारी की नियुक्ति अलाउद्दीन खिलजी ने की थी।
नाइब-ए-मुमलिकत

 इस पद की स्थापना बहरामशाह के समय में उसके सरदारों द्वारा की गयी। इस पद का महत्व अयोग्य  सुल्तानों के समय अधिक रहता था 

दीवान-ए-कजा

 यह न्याय विभाग था। काजी-ए-मुमालिक अथवा काजी-उल-कुजात इस विभाग का अध्यक्ष होता था। काजी-ए-मुमालिक न्याय विभाग के अधिकारियों की नियुक्ति एवं न्यायपालिका के संचालन कार्य भी करता था।

 सुल्तान के बाद ये न्याय का सर्वोच्च अधिकारी होता था। इसके अधीन नायब काजी एवं अदल होते थे। नियमों की व्याख्या तथा गूढ़ विषयों पर मत देने के लिए 'मुफ्ती' होते थे।

सद्र-उस-सुदूर

 यह धर्म एवं दान विभाग का प्रमुख होता था। धार्मिक मामलों पर यह सुल्तान का प्रमुख सलाहकार भी होता था। प्रायः काजी-ए-मुमालिक एवं सद्र-उस-सुदूर का पद एक ही व्यक्ति को दिया जाता था।

 सद्र-उस-सुदूर का कार्य इस्लामी नियमों तथा उपनियमों को लागू करना होता था। मुसलमानों से लिए जाने वाले जकात पर इसी अधिकारी का अधिकार होता था। यह मस्जिदों, मकतबों एवं मदरसों के निर्माण के लिए धन मुहैया कराता था।

अमीर-ए-हाजिब

 इस पदाधिकारी को बारबक भी कहा जाता था। यह दरबार की शान-शौकत एवं रस्मों की देख-रेख करता था। यह सुल्तान से मिलने वालों की जाँच पड़ताल करता था।

दिवान-ए-रियासत

 इस नये विभाग की स्थापना अलाउद्दीन खिलजी ने बाजार नियन्त्रण व्यवस्था को कार्यान्वित करने के लिए की थी। इसका कार्य सुल्तान के द्वारा बनायी गयी मूल्य सूची के आधार पर सभी वस्तुओं के क्रय-विक्रय का प्रबन्ध करना था। सभी बाजार के लिए अलग-अलग अधीक्षक होते थे जिन्हें "शाहना-ए-मण्डी" कहा जाता था।

दीवान-ए-अमीर कोही

 इस विभाग की स्थापना मुहम्मद बिन तुगलक ने कृषि विकास एवं मालगुजारी व्यवस्था की जाँच हेतु की थी। इसका अध्यक्ष अमीर-ए-दीवान कोही कहलाता था। यह विभाग दीवान-ए-विजारत के नियन्त्रण में कार्य करता था।
वकील-ए-दर

यह पद अत्यंत महत्वपूर्ण होता था। यह शाही महल एवं सुल्तान की व्यक्तिगत सेवाओं की देखभाल करता था।

दीवान-ए-बन्दगान

 यह दास विभाग था। इसकी स्थापना फिरोज तुगलक ने की थी। इस विभाग का कार्य दासों को विभिन्न व्यवसायों में प्रशिक्षित कर उन्हें शाही कारखानों तथा अन्य स्थानों पर सेवा में लगाना था। इस विभाग के अन्तर्गत अर्ज-ए-बन्दगान, मजमुआदार व दीवान आदि अधिकारी होते थे।

दीवान-ए-खैरात

 इस विभाग की स्थापना फिरोज तुगलक ने की थी। इस विभाग का कार्य निर्धन एवं असहाय लोगों की पुत्रियों के विवाह हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करना था।

दीवान-ए-इमारत

 दीवान-ए-इमारत अथवा लोक निर्माण विभाग की स्थापना फिरोज तुगलक ने की थी। इस विभाग को 'इमारतखाना' भी कहा जाता था। इस विभाग का प्रमुख अधिकारी "मीर-ए-इमारत" होता था।

 दीवान-ए-इमारत विभाग द्वारा अनेक सरायों, नहरों, बांधों, मस्जिदों, भवनों, मकबरों व मदरसों का निर्माण किया गया।

दीवान-ए-मुस्तखराज

 इस विभाग की स्थापना अलाउद्दीन खिलजी ने की थी। इसका कार्य अतिरिक्त मात्रा में वसूले गये कर का हिसाब रखना था। यह विभाग दीवान-ए-विजारत के अधीन था।

सरजानदार
 यह सुल्तान के अंग रक्षकों का प्रमुख होता था।
अमीर-ए-मजलिस
 यह सभाओं, दावतों व उत्सवों का प्रबन्ध करता था।

अमीर-ए-आखूर--अश्वशाला का अध्यक्ष
शाहना-ए-पील--हस्तिशाला का अध्यक्ष
दीवान-इस्तिहाक--पेंशन विभाग
अमीर-ए-शिकार
 सुल्तान के लिए शिकार खेलने का प्रबन्ध करता था।

मजलिस-ए-खलवत

 यह सुल्तान के मित्रों और विश्वासपात्र अधिकारियों की परिषद थी, जिसमें समस्त महत्वपूर्ण विषयों पर परामर्श किया जाता था।

शाही कारखाने

 सल्तनत कालीन प्रशासनिक व्यवस्था में कारखानों का महत्वपूर्ण स्थान था। इन कारखानों में राजदरबार एवं राजपरिवार की विलासिता सम्बन्धी वस्तुएं तैयार की जाती थी।

 राज्य कारखाने स्थापित करने का सिद्धान्त सम्भवतः "फारस" से लिया गया था। शाही कारखानों को राज्य एवं व्यापारियों से सहायता मिलती थी।
 फिरोज तुगलक ने शाही कारखानों के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया। मुहम्मद तुगलक ने अपने शासनकाल में एक "वस्त्र निर्माणशाला" की स्थापना की थी।

सल्तनत कालीन प्रान्तीय प्रशासन


 प्रान्तीय प्रशासन केन्द्रीय प्रशासन का प्रतिरूप था। सल्तनत साम्राज्य अनेक प्रान्तों में विभाजित था, जिसे "इक्ता या विलायत" कहा जाता था। यहां का प्रशासन वली, नायब व मुक्ति द्वारा किया जाता था।

 वली प्रान्तीय कार्यपालिका, न्यायपालिका व सैन्य संगठन तीनों का प्रधान होता था। प्रान्त में शान्ति व्यवस्था बनाये रखना उसका प्रमुख कर्तव्य था। वह भू-राजस्व की वसूली का कार्य भी देखता था।

 वली की नियुक्ति, स्थानांतरण एवं अपदस्थीकरण सुल्तान द्वारा किया जाता था। वित्तीय मामलों में वली की सहायता के लिए ख्वाजा अथवा साहिबे-दीवान नामक अधिकारी होता था।

 ख्वाजा नामक अधिकारियों की नियुक्ति बलबन ने वली (इक्तादारों) के भ्रष्टाचार को रोकने के लिए की थी। ख्वाजा की सहायता के लिए मुतसर्रिफ अथवा कारकुन नामक अधिकारी होता था।

सल्तनत कालीन स्थानीय प्रशासन


 प्रशासन की सुविधा के लिए इक्ताओं अथवा प्रान्त को शिकों (जिलों) में विभाजित किया गया था। शिकों का निर्माण 1279 ई. में सर्वप्रथम बलबन ने किया था। शिक का प्रशासक शिकदार कहलाता था।

 लोदी काल में शिक शब्द का प्रयोग कम हो गया उसके स्थान पर सरकार शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। शिक के नीचे प्रशासन की इकाई परगना थी। जिसमें कई गाँव सम्मिलित होते थे।

 परगना के प्रमुख अधिकारी को 'आमिल' कहा जाता था। इसका प्रमुख कार्य परगने में शान्ति व्यवस्था स्थापित करना था। परगना अनेक गाँवो में विभाजित था।

 गाँव प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। गाँव का शासन कार्य चलाने के लिए गांव के प्रमुख अधिकारियों में पटवारी, खूट, मुकद्दम और चौधरी प्रमुख थे। इनका मुख्य कार्य गांव में शान्ति व्यवस्था स्थापित करना तथा शासन को लगान वसूलने में मदद करना था।

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